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[ १२ ] से एक वर्ष एक महीना पहले हुआ है-यह अगस्त १९२९ में मुद्रित और प्रकाशित है तो वह सितम्बर १९३० में।
(३) तीसरे, नाम-माहात्म्यको दृष्टिसे भी सूर्यप्रकाश बड़ा है जो सागरके भी ऊपर रहता है, अनेक सागरोंको प्रकाशित करता है और जिसके बिना सब कुछ अन्धकारमय है।
(४) चौथे, इसकी मूल रचना गीर्वाणभाषा संस्कृतमें हुई है जो कि सब आर्यभाषाओं में बड़ी है, जब कि चर्चासागर आधुनिक हिन्दी भाषाका प्रन्थ है। उसमें संस्कृतादिके वाक्योंको इधर-उधरसे उधार लेकर रक्खा गया है। प्रकाशक महाशयने इसके कुछ अशुद्ध प्रयोगोंको प्रचलित संस्कृत व्याकरण तथा कोष-सम्मत न देख कर जो उसे 'अपभ्रंश' भाषाका प्रथ मान लेनेकी सलाह दी है, वह निरर्थक है,। जान पड़ता है वे अपभ्रंश भाषाके स्वरूपसे बिलकुल हो अनभिज्ञ हैं। अच्छा होता यदि वे उनके विषयमें आर्ष प्रयोगोंकी कल्पना कर डालते और इस तरह पर ग्रंथकारकी त्रुटियोको महत्वका
(५) पाँचवे, 'सूर्यप्रकाश' पर आचार्य शांतिसागरजीकी प्रशंसाकी मुहर लगी हुई है, जिससे प्रेरित होकर ही द्रव्यदाताओंने (गांधी नेमचन्द मियाचन्द आदि तीन भाइयोने) उसके उद्धारके लिये धन खर्च किया है; जब कि 'चर्चासागर' पर वैसी कोई मुहर नहीं है। हाँ बाद को “जैनजगत्" में प्रकाशित सेठ गंभीरमल जी पांड्याके वक्तन्यसे मालूम हुआ कि उनसे उसकी प्रशंसा करने वाले और उसे 'महान् उपयोगी' बतलाने वाले ब्र० ज्ञानचन्द्रजी तथा क्षुल्लक चन्द्रसागरजी थे । उन्होंकी प्रेरणा तथा उपदेशसे उन्होंने उसके प्रकाशनार्थ द्रव्य दान किया था, और ये दोनों ही शांतिसागरजीके शिष्य हैं । अतः शिष्य-प्रशंसितको अपेक्षा गुरु-प्रशंसितको स्वभावतः ही