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[१०] चर्चासागर में तो उसका निर्माणकाल वि० सं० १८१० दिया हुआ है । यह सब अपना नाम गुम रखने वाले यार लोगों को चालाकी है। उन्होंने प्रन्थको वृद्धता का कुछ मान देने के लिये उसकी आयु में एक दम १०० वर्ष को वृद्धि करदो है ! अन्यथा, ग्रंथ में संवत् जिन 'दिग हरि चन्द्र' शब्दों में दिया हुआ है उन का स्पष्ट अर्थ १९१० होता है; फुट नोट लगाने वालों ने दिग, हरि और चन्द्र पर क्रमशः नं. ६,७,८ डालकर फुटनोट में उनका अर्थ देते हुए 'दिशाएं दश हैं', 'चन्द्र एक को कहते हैं', इतना तो लिखा है परन्तु हरिनारायण ८ होते हैं या ९ऐसा कछ लिखा नहीं-'हरि' शब्द का अर्थ बिलकुल हो छोड़ दिया है, और वैसे ही गोलमाल करते हुए लिख दिया है कि
"इन सब के मिलाने से तथा अङ्कानां वामो गतिः अर्थात् अङ्कों की गति बाई ओर को होती है इस न्याय से १८१० है। अर्थात् विक्रम सम्वत् १८१० में यह प्रन्थ बना।"
यह चालाकी नहीं तो और क्या है ? ग्रंथ में तो २२९ वीं चर्चा के अन्तर्गत, पृ० ४५७ पर, भीष्म पन्थ की उत्पत्ति का वर्णन करते हुए, उसका स्पष्ट सम्बत् "अठारहसौ तेईस को साल" तक दिया हुआ है, तब यह ग्रंथ १८१० में कैसे बन सकता है, इसे पाठक स्वतः समझ सकते हैं।
और 'सूर्य प्रकाश में तो इस विषय की चालाकी और भी बढ़ी चढ़ी है। उसमें अनुवादक-सम्पादक ७० ज्ञानचन्द्र जी महाराज ( वर्तमान क्षुल्लक ज्ञानसागर जी) ने निर्माणकाल विषयक श्लोक का अर्थ हो नहीं दिया, जब कि उसी प्रकार के बोसियों संख्यावाचक श्लोकों का प्रन्थ में अर्थ दिया गया है।
ओर मज़ा यह है कि अर्थ न देने का कोई कारण भी नहीं बतलाया और न उसके छोड़ने की कोई सूचना ही को गई है !