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[९] के साथ में गूथ कर अथवा मिला कर उनका दुरुपयोग किया है, और इस तरह पर ऐसे समूचे ग्रन्थों को विषमिश्रित भोजन के समान बना दिया है, जो त्याग किये जाने के योग्य होता है। विषमिश्रित भोजन का विरोध जिस प्रकार भोजन का विरोध नहीं कहलाता उसी तरह पर ऐसे प्रन्यों के विरोध को भी पापंचाक्यों अथवा जैन शास्त्रों का विरोध या उनकी कोई अवहेलना नहीं कहा जा सकता । अतः विद्वानों तथा दूसरे विवेकी जनों को ऐसे प्रन्थों के विरुद्ध अपना विचार प्रकट करने में ज़रा भी संकोच न होना चाहिये; संकोच से उन्हें ऐसे प्रन्थों द्वारा होने वाले अनर्थ का भागी होना पड़ेगा । अस्तु ।
अब मैं पाठकों तथा समाज का ध्यान एक दुसरी ओर आकर्षित करना चाहता हूं और वह है " चर्चासागर का बड़ा भाई"। मुनि शान्तिसागर जी के संघ की असीम कृपा से जहां हमे 'चर्वासागर' जैसे प्रथरत्न की प्राप्ति हुई है वहां प्रसाद रूप में एक दूसरा अपूर्व ग्रंथ और भी मिला है, जिसका नाम है 'सूर्य प्रकाश'। दोनों का उद्गम स्थान एक ही संघ और दोनों के निर्माण तथा प्रकाशनादि में एक ही मुख्य स्पिरिट ( मनोवृत्ति ) अथवा उद्देश्य के होने से इन्हें भाई भाई कहना तो सार्थक है ही, परन्तु 'सूर्य प्रकाश' को चर्चासागर का बड़ा भाई कहना तो और भी सकारण है। क्योंकि
(१) एक तो यह (सूर्य प्रकाश ) चर्चासागर से कोई डेढ़ वर्ष बड़ा है इसका जन्म जब विक्रम सम्वत् १९०९ के श्रावण मास में हुआ है तब चर्चासागर ने वि० सं० १९१० के माघ मास में अवतार लिया है।
यहाँ पर किसी को यह आशंका नहीं करनी चाहिये कि