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[ ७ ] जाली तथा अर्द्ध जालो ग्रंथोंके प्रमाणोंका हाल है। इन मिथ्यात्वपोषक तथा अन्धश्रद्धाके गढ़रूप मूल ग्रंथोंका पूर्णतया विरोध न करके उनकी कुछ चर्चाओंको संग्रह करनेवाले ग्रंथका विरोध करना क्या अर्थ रखता है, यह मेरो कुछ समझ में नहीं आता। और इसी लिये एसे एकांगी विरोध को देखते हुए मुझे कुछ आश्चर्य होता है।
_ 'सोमसन-त्रिवर्णाचार' के दो संस्करण हो चुके-एकमें वह मराठो टोकासहित प्रकाशित हुआ और दूसरेमें हिन्दी टीकासहित । जगह जगह मन्दिरोंमें उसको कापियाँ पाई जाती है और उसे भी दूसरे प्रथोक साथ नित्य अर्घ चढ़ाया जाता है । यह सब विप-वृक्षको सोचना और उसे बनाये रखना नहीं तो और क्या है ?
___ अतः चर्चासागरके विरोध लेखनी उठाने वालोंका यह पहला कर्तव्य होना चाहिये कि वे उन ग्रंथोंका खुला विरोध करे, जिनके आधार पर वस्तुतः धर्मविरुद्ध कथनों अथवा आपत्तिजनक विषयोंको ग्रन्थमै चर्चित और प्रतिपादित किया गया है। उनमेंस जिन ग्रंथोंको परीक्षाएं अभी तक नहीं हो पाई हैं * उनकी पूरी जाँच तथा सांगोपांग परोक्षाका भी
___* निम्नलिखित ग्रन्थोकी विस्तृत परीक्षाएँ लेखक-द्वारा हो चुकी हैं और उन्हें 'जैनग्रंथ-रत्नाकर-कार्यालय, हीराबाग, बम्बई' ने तीन भागोमं प्रकाशित किया है, जो सब पढ़ने तथा ऐसे दूषित साहित्यके विरोधर्म प्रचार करनेके योग्य हैं :
१ उमास्वामी-श्रावकाचार, २ कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, ३ जिनसेन-त्रिवर्णाचार, ४ भद्रबाहु-संहिता, ५ सोमसेन-त्रिवर्णाचार, ६ धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बर )।