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असली (अपरिवर्तित ) रूप में सामने न हो अथवा उस पर से कोई निष्पक्ष विद्वान अपनी जाँच की रिपोर्ट प्रकट न करे तबतक पं० चम्पालाल जो पर किसी विषय का सीधा आरोप नहीं लगाया जा सकता है ।
हाँ, यदि यह मान लिया जाय और जाँच से साबित हो जाय - जिसकी अधिकाश में सम्भावना है - कि मात्र भाषापरिवर्तन के सिवाय ग्रन्थ में दूसरा कोई खास गोलमाल नहीं हुआ है - फुटनोट बेशक सम्पादकादिक के लगाये हुए हैं-तो पं० चम्पालाल जी ने जितने अन्शों में जानबूझ कर अर्थ का अनर्थादि किया है, कुछ विरुद्ध तथा अनर्थकारी बातों को योंही अपनी तरफ़ से जोड़ा हैं अथवा किसी कपायवश दूषित साहित्य को इस तरह पर प्रचार देने का यत्न किया है, उतने अन्शो में वे इस विषय के विशेष अपराधी ज़रूर हैं । और तब यह उनकी अक्षम्य धृष्टता है जो वे इस ग्रन्थ के सब कथनों को 'भगवान अरहन्त की भाज्ञानुसार' बतलाते हैं और इसे 'जिनवाणी' प्रतिपादित करते हैं।
परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी इतना तो स्पष्ट है कि 'चर्चासागर' नाम का जो मुद्रित ग्रंथ हमारे सामने है उसमें 'त्रिवर्णाचार' तथा 'धर्म रसिक' नाम से बहुत से धर्मविरुद्ध कथन पाये जाते हैं और वे सब 'सोमसेन त्रिवर्णाचार' में मौजूद हैं, जिसे 'धर्मरसिक' भी कहते हैं और जिसमें धर्मविरुद्ध कथन बहुत कुछ कूट कूट कर भरे हुए हैं, जिनका बहुत कुछ पता ग्रंथ की उस विस्तृत परीक्षा से सहज ही में चल सकता है जो ग्रन्थ परीक्षा के तृतीय भाग में २६६ पृष्ठों में दर्ज है। इसी तरह ' उमास्वामि श्रावकाचार' आदि दूसरे