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[४] तथा चलने के लिये उद्यत देखकर निःसन्देह प्रसन्नता होती है ।
परन्तु साथ ही यह देखकर आश्चर्य के साथ कुछ खेद भी होता है कि लोग इस चर्चा सागर के विरुद्ध जितना टूट कर पड़े हैं उसका शतांश भी वे उन त्रिवर्णाचार (धर्मरसिक) आदि प्रन्थों का विरोध नहीं कर रहे हैं जिनके आधार पर इस प्रन्थ में धर्म विरुद्ध तथा आपत्तिजनक विषयों को चर्चित किया गया और विधेय ठहराया गया है। क्या विषवृक्ष के मूल में कुठाराघात न करके उसे सींचते रहने और बनाये रखने पर यह आशा की जासकती है कि उसमें पत्र-पुष्पादि का प्रादु. र्भाव नहीं होगा ? कदापि नहीं। जबतक इन दृषित मूलग्रन्थों का अस्तित्व अक्षुण्ण बना रहेगा अथवा उनकी भूमि पर अन्ध श्रद्धा का वृक्ष लहलहाता रहेगा, तबतक ऐसे असंख्य चर्चासागर रूण पत्र पुष्पों की उत्पत्ति को कोई रोक नहीं सकता। इसमें वेचारे उन अन्धश्रद्धालुओं का विशेष अपराध भी क्या कहा जा सकता है जो उपलब्ध प्रन्थों पर से कुछ विषयों की चर्चाओं का संग्रह करते हैं, जब कि उन प्रन्थों के विषय में उनके भीतर यह रूह (स्पिरिट Spirit)फू की गई है कि वे सब जिनवाणी है और इसलिए उनपर संदेह करना अथवा उनके विरुद्ध विचार करना अधर्म तथा मिथ्यात्व है। यह सब अपराध ऐसी मिथ्या रूह (चेतना) फूकने वाले प्रस्थकर्ताओं तथा उनके प्रचारकों आदि का है, और कुछ उनका भी है जो यह जानते हुए भी कि ये प्रन्य विषमिश्रित हैं-धर्म-विरुद्ध कथनों से भरे हुए हैं, उनके विषय में चुप्पी साधे हुए हैं, उनसे जनता को सावधान करने की हिम्मत नहीं रखते हैं अथवा उन पर *विष ( Ponson) है" ऐसा लेबिल लगाने में प्रमाद करते हैं। क्या जो लोग यह जानते हुए भी कि अमुक सिक्का, अथवा