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[ ८] अपनी शक्तिभर पूरा यत्न करना और कराना चाहिये, जिससे सर्वसाधारण उनके स्वरूपादिसे भले प्रकार परिचित हो सकें और उनके विषयमें जिनवाणीत्वको जो मिथ्या रूह उनके भीतर की हुई है वह निकल कर, उनकी श्रद्धाका सुधार हो सके।
मेरा विचार "चर्चासागर" जैसे ग्रंथोंके सम्बन्धमे भी प्रायः वही है, जिसे मैं अपनी ग्रंथ-परीक्षाओं में आम तौर पर और "सोमसेन-त्रिवर्णाचार" को परोक्षाके अन्तमें खास तौर पर प्रकट कर चुका है। मैं ऐसे प्रन्थोंको जैनग्रन्थ नहीं, किन्तु जैनग्रन्थों के कलंक समझताहूँ। इनमें रत्नकरण्डश्रावकाचारादि जैसे कुछ आर्ष ग्रंथोंक वाक्योंका जो संग्रह किया गया है वह प्रन्थकर्ताओंको एक प्रकारकी चालाकी है, धोखा है, मुलम्मा है अथवा विरुद्ध कथनरूपी जाली सिक्कों को चलाने आदिका एक साधन है । उन्होंने उनके सहारेसे अथवा उनकी
ओटमें उन मुसलमानोंकी तरह अपना उल्लू सीधा करना चाहा है, जिन्होंने भारत पर आक्रमण करते समय गौओंके एक समूहको अपनी सेनाके आगे कर दिया था। और जिस प्रकार गोहत्याके भयसे हिन्दुओंने उन पर आक्रमण नहीं किया था उसी प्रकार शायद आर्षवाक्योंकी अवहेलनाका कुछ ख़याल करके उन जैन विद्वानोंने, जिनके परिचयमें ऐसे ग्रन्थ अब तक आते रहे हैं, उनका जैसा चाहिये वैसा विरोध नहीं किया है । परन्तु आर्ष वाक्य और आर्ष वाक्यों के अनुकूल कहे गये दूसरे प्रतिष्ठित विद्वानोंके वाक्य अपने अपने स्थान पर माननीय तथा पूजनीय हैं, धूर्त लोगोंने उन्हें जैनधर्म, जैनसिद्धान्त, जैननीति तथा जैन-शिष्टाचार आदिसे विरोध रखने वाले और जैनआदर्शसे गिरे हुए कथनों