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लाचार ग्रंथ प्रकाशक सेठ रावजी सखाराम दोशो से उनके भूमिकात्मक दो शब्दों में यह कहलाया गया है कि - " अन्तमें जो निर्माणकाल बताया है उसका अर्थ अस्पष्ट है । इसलिये पाठक उसको ध्यान से पढ़े और मनन करें ।" परन्तु अर्थ तो कुछ दिया ही नहीं गया जिसके विषयमें अस्पष्टताको प्रकाशक महाशय खुद कुछ कल्पना करते ! और श्लोकका पाठ कुछ अस्पष्ट है नहीं, वह तो अपने स्पष्ट रूपमें इस प्रकार है
काभ्रनंदेंदु प्रमे हि चान्दे मित्राद्रि-शैलेन्दु-सुशाकयुक्ते ! मासे नभाख्ये शुभनंदघस्रे विरोचनस्यैव सुवारके हि ॥
और इस लोक परसे स्पष्ट जाना जाता है कि यह ग्रंथ 'वि० सं० १९०९ तथा शक सं० १७७४ के श्रावण मास में शुक्र rants for रविवारको' बनकर समाप्त हुआ है। अगले दो श्लोकोंमें, जिनका अर्थ निरंकुशता पूर्वक कुछ घटा बढ़ाकर दिया गया है, ग्रन्थके द्रोणीपुरके पार्श्वनाथ जिनालय में समाप्त होने की सूचना समय, नक्षत्र और योगके नामोल्लेखपूर्वक की गई है, साथ ही कुछ आशीर्वाद भी दिया गया है ।
इस सारी स्थिति परसे ऐसा मालूम होता है कि उक्त लोकका अर्थ न देनेमें अनुवादकादिकका यह ख़ास आशय रहा है कि सर्वसाधारण पर यह बात प्रकट न होने पाए कि ग्रन्थ इतना अधिक आधुनिक है-अर्थात् इस बीसवीं शताब्दीका ही बना हुआ है !
(२) दूसरे, छपकर प्रकाशित भी यह मंथ चर्चासागर
* यह निरंकुशता अनुवादमें सर्वत्र पाई जाती है
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