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[ ५] नोट जाली है उसे चलने देते हैं वे दूसरों के उगाये जाने में मदद नहीं करते हैं ? ज़रूर करते हैं और इसलिये अपराधी हैं।
यह ठीक है कि प्रन्थकार पं० चम्पालाल जी ने अनेक स्थानों पर अर्थ का अनर्थ किया है, चालाको से काम लिया है और कितनी ही विरुद्ध बातें अपनी तरफ से भी ऐसी जोड़ दी हैं जिनका कोई प्रमाण नहीं दिया गया, ऐसा अन्य पर से जान पड़ता है। परन्तु जो मुद्रित प्रन्थ हमारे सामने है वह अपने मूल रूप में नहीं किन्तु भाषा के परिवर्तनादि को लिये हुए है। हो सकता है कि इसमें उन भाषापरिवर्तक तथा सम्पादक महाशयों को भी कुछ लीला शामिल हो गई हो. जिन्हें अपना नाम देने तक में संकोच हुआ है, जिनके नाम पीछे से पत्रों में कुछ रहस्य के साथ प्रकट हो रहे हैं । और जिन्होंने अपने कर्तव्य के पालन में यहां तक उपेक्षा तथा आना. कानी की है कि पबलिक को इतनी भी सूचना नहीं दी कि इस प्रन्थ की भाषा परिवर्तित की गई है तथा इसके सब फटनोट उनकी अपनी कति है-ग्रन्थकर्ता की नहीं। और इसलिए उन्होंने पबलिक को एक प्रकार से धोखे में रक्खा है और यह सब उनके नैतिक बल की त्रुटि का अच्छा सूचक है तथा उनके विषय में काफी संदेह पैदा करता है। ऐसी हालत में जबतक ग्रंथ को हस्तलिखित कापी अपने
__+ इसे ढूंढारी भाषा से हिन्दी में परिवर्तित करने वालों में 4. लालाराम जी का और इसके प्रधान संपादकों तथा प्रचारकों में उनके भाई पं. नन्दनलाल जी का नाम प्रकट हुआ है, जो उस समय ब. ज्ञानचन्द्र जी के रूप में थे और अब क्षुल्लक ज्ञानसागर जी के रूप मे मुनिसंघ में उपस्थित हैं।