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अर्थयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पद्मपुराण
नामकी पुरी तथा राजगृह नामक वन पावन तीर्थ हैं। यह तीर्थोका संग्रह मैंने संक्षेपमें बतलाया है; वहीं च्यवन मुनिका आश्रम, पुनःपुना (पुनपुन) नदी विस्तारसे तो इसे बृहस्पतिजी भी नहीं कह सकते, फिर
और विषयाराधन-तीर्थ-ये सभी पुण्यमय स्थान है। मनुष्यकी तो बात ही क्या है। सत्य तीर्थ है, दया तीर्थ राजेन्द्र ! लोगोंमें यह किंवदन्ती प्रचलित है कि एक है, और इन्द्रियोंका निग्रह भी तीर्थ है। मनोनिग्रहको भी समय सब मनुष्य यही कहते हुए तीर्थों और मन्दिरोंमें तीर्थ कहा गया है। सबेरे तीन मुहूर्त (छः घड़ी) तक आये थे कि 'क्या हमारे कुलमें कोई ऐसा पुत्र उत्पन्न प्रातःकाल रहता है। उसके बाद तीन मुहूर्ततकका समय होगा, जो गयाकी यात्रा करेगा? जो वहाँ जायगा, वह सङ्गव कहलाता है। तत्पश्चात् तीन मुहूर्ततक मध्याह्न सात पीढ़ीतकके पूर्वजोंको और सात पीढ़ीतककी होता है। उसके बाद उतने ही समयतक अपराह्र रहता होनेवाली सन्तानोंको तार देगा।' मातामह आदिके है। फिर तीन मुहूर्ततक सायाह होता है। सायाह्न-कालमें सम्बन्धमें भी यह सनातन श्रुति चिरकालसे प्रसिद्ध है; वे श्राद्ध नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह राक्षसी वेला है, कहते हैं-'क्या हमारे वंशमें एक भी ऐसा पुत्र होगा, अतः सभी कोंके लिये निन्दित है। दिनके पंद्रह मुहूर्त जो अपने पितरोंकी हड्डियोंको ले जाकर गङ्गामें डाले, बतलाये गये हैं। उनमें आठवाँ मुहूर्त, जो दोपहरके बाद सात-आठ तिलोंसे भी जलाञ्जलि दे तथा पुष्करारण्य, पड़ता है, 'कुतप' कहलाता है। उस समयसे धीरे-धीरे नैमिषारण्य और धर्मारण्यमें पहुँचकर भक्तिपूर्वक श्राद्ध सूर्यका ताप मन्द पड़ता जाता है। वह अनन्त फल एवं पिण्डदान करे?' गया क्षेत्रके भीतर जो धर्मपृष्ठ, देनेवाला काल है। उसीमें श्राद्धका आरम्भ उत्तम माना ब्रह्मसर तथा गयाशीर्षवट नामक तीर्थोंमें पितरोंको जाता है। खड्गपात्र, कुतप, नेपालदेशीय कम्बल, पिण्डदान किया जाता है, वह अक्षय होता है। जो घरपर सुवर्ण, कुश, तिल तथा आठवाँ दौहित्र (पुत्रीका श्राद्ध करके गया-तीर्थकी यात्रा करता है, वह मार्गमें पैर पुत्र)-ये कुत्सित अर्थात् पापको सन्ताप देनेवाले हैं; रखते ही नरकमें पड़े हुए पितरोंको तुरंत स्वर्गमें पहुँचा इसलिये इन आठोंको 'कुतप' कहते हैं। कुतप मुहूर्तके देता है। उसके कुलमें कोई प्रेत नहीं होता। गया बाद चार मुहूर्ततक अर्थात् कुल पाँच मुहूर्त स्वधा-वाचन पिण्डदानके प्रभावसे प्रेतत्वसे छुटकारा मिल जाता है। (श्राद्ध) के लिये उत्तम काल है। कुश और काले तिल [गयामें] एक मुनि थे, जो अपने दोनों हाथोंके भगवान् श्रीविष्णुके शरीरसे उत्पन्न हुए हैं। मनीषी अग्रभागमें भरा हुआ ताम्रपात्र लेकर आमोंकी जड़में पुरुषोंने श्राद्धका लक्षण और काल इसी प्रकार बताया पानी देते थे; इससे आमोंकी सिंचाई भी होती थी और है। तीर्थवासियोंको तीर्थके जलमें प्रवेश करके पितरोंके उनके पितर भी तृप्त होते थे। इस प्रकार एक ही क्रिया लिये तिल और जलकी अञ्जलि देनी चाहिये। एक दो प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाली हुई। गयामें पिण्डदानसे हाथमें कुश लेकर घरमें श्राद्ध करना चाहिये। यह बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है क्योंकि वहाँ एक ही तीर्थ-श्राद्धका विवरण पुण्यदायक, पवित्र, आयु पिण्ड देनेसे पितर तृप्त होकर मोक्षको प्राप्त होते हैं। बढ़ानेवाला तथा समस्त पापोंका निवारण करनेवाला है। कोई-कोई मुनीश्वर अनदानको श्रेष्ठ बतलाते हैं और कोई इसे स्वयं ब्रह्माजीने अपने श्रीमुखसे कहा है। वस्त्रदानको उत्तम कहते हैं। वस्तुतः गयाके उत्तम तीर्थोंमें तीर्थनिवासियोंको श्राद्धके समय इस अध्यायका पाठ मनुष्य जो कुछ भी दान करते हैं, वह धर्मका हेतु और करना चाहिये। यह सब पापोंकी शान्तिका साधन और श्रेष्ठ कहा गया है।
दरिद्रताका नाशक है।