Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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६०८ ]
सम्यक्त्वोत्पत्ति की पात्रता
शंका- आचरणहीन व ज्ञानरहित मनुष्य को भी सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो सकता है क्या ?
समाधान - प्रथमोपशमसम्यक्त्व होने से पूर्व पाँच लब्धियाँ होती हैं । १. क्षयोपशम, २. विशुद्धि, ३. देशना, ४. प्रायोग्य, ५. करण, ये पाँच लब्धियाँ हैं । इन पाँच लब्धियों में से प्रथम तीन लब्धियों का स्वरूप इसप्रकार है
"पुथ्व संचिदकम्ममलपडलस्स अणुभागद्दयाणि जदा विसोहीए पडिसमयमणंतगुणहोणाणि होवूणुवीरिज्जंति तदा खओवसमलद्धी होदि । पडिसमयमणंतगुणहीण कमेण उदीरिदं अणुभागफद्दयजणिबजीवपरिणामो सादादिसुह कम्मबंधनिमित्तो असादादि असुहकम्मबंधविरुद्धो विसोहिणाम । तिस्से उवलंभो विसोहिलद्धी णाम । छद्दव्व णवपदस्थोवदेसी देसणा णाम । तीए देसणाए परिणद- आइरियादीणमुवलंभो; देसिदत्थस्स गहणधारण- विचारणसत्तीए समागमो देसणलद्धी णाम ।"
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
पूर्वसंचित कर्मों के मलरूप पटल के अनुभागस्पर्धक जिससमय विशुद्धि के द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुण हीन होते हुए उदीरणा को प्राप्त किये जाते हैं, उससमय क्षयोपशमलब्धि होती है । प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन क्रमसे उदीरत अनुभागस्पर्धकों से उत्पन्न, साता प्रादि शुभ कर्मों के बंध के कारण और प्रसाता आदि अशुभकर्मबंध के विरोधी, ऐसे जीव परिणामों को विशुद्धि कहते । उन परिणामों की प्राप्ति का नाम विशुद्धिलब्धि है। छहद्रव्यों ओर नोपदार्थों के उपदेश का नाम देशना है। उस देशना से परिणत प्राचार्य आदि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थं ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशनालब्धि कहते हैं । धवल पु० ६ पृ० २०४ ।
इस देशना लब्धि की पात्रता का कथन करते हुए श्री अमृतचन्द्राचार्य ने लिखा है
अष्टाव निष्टस्तर दुरितायतनान्यमूनि परिवर्ज्य । जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि शुद्धधियः ॥ ७४ ॥
दुःखदायक, दुस्तर और पापों के स्थान प्राठ पदार्थों को (ऊमर, कठूमर, पाकर फल, पीपल फल, बड़फल मद्य, मांस, मधु ) परित्याग करके, अर्थात् इनके त्याग से उत्पन्न हुई निर्मल बुद्धि ( विशुद्ध परिणाम ) जिनके, ऐसे निर्मलबुद्धि वाले पुरुष जिनधर्म के उपदेश के पात्र होते हैं ।
इससे इतना स्पष्ट हो जाता है कि ऊमर आदि आठ पदार्थों के अथवा सप्तव्यसन के त्याग से ही बुद्धि निर्मल होती है । जिससे वह पुरुष छहद्रव्य नवपदार्थों के उपदेश का पात्र बनता है। उस उपदेश से ज्ञान की प्राप्ति होती है । तब उस जीव में सम्यग्दर्शन की योग्यता आती है । अर्थात् इतना आचरण व ज्ञान होने पर ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति संभव है । सप्तव्यसन का सेवन करते हुए सम्यग्दर्शन उत्पन्न नहीं हो सकता है ।
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-- जै. ग. 18-2-71 / VIII / सुल्तानसिंह १. ज्ञान का फल सम्यग्दर्शन भी है और सम्यकचारित्र भी २. द्रव्यलगी मुनियों में सम्यक्त्वी भी मिलते हैं ३. विद्वत्ता की सफलता चारित्र धारण करने में है
शंका- १८ दिसम्बर १९६९ के जैनसंदेश के सम्पादकीय लेख में जो यह लिखा है कि ज्ञान का फल सम्यग्दर्शन है, चारित्र नहीं है क्या यह ठीक है ?
समाधान - ज्ञान का फल सम्यग्दर्शन भी है और चारित्र भी है। परीक्षामुख में कहा भी है"अज्ञान निवृत्तिनोपादानोपेक्षाश्च फलम् ।"
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