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राजपूताने के जैन-धीर जैनी भारत में रहते हुये भी उनके सम्बन्ध में कोई कुछ नहीं लिखता, उनके गौरव-प्रतिष्ठाश्रादि को जाने दीजिये, उनके अस्तित्व से भी बहुत कम परिचत हैं। इसके कई कारण हैं । बौद्ध संसार में सबसे अधिक है, बलशाली भी खूब हैं और राज्य सत्ता : भी उनके हाथ में हैं, इस लिये उनकी ओर संसार का ध्यान श्राकर्षित होना ज़रूरी है । इसके विपरीत जेनसमाज राज्य सत्ता खो बैठी है, अपने सहयोगियों-अनुयाइयों को निरन्तर निकालते रहने के कारण अल्प संख्या में अपने जीवन के शेष दिन पूरे कर रही है। उसका स्वयं बाह्य आडम्बरोंके सिवा इस ओर ध्यानही नहीं है, लव ऐसी. मरणोन्मुख साथही चिड़चिड़ीसमाज के सम्बन्ध में कोई क्यों और कैसे लिख सकता है। अपने पास इतिहास के अनेक साधन रहते हुये भी उन्हें कंजूस के धन की तरह अनुपयोगी बना रक्खा है । जैन समाज के. श्रीमान स्वों के प्रलोभन ।
और जरासी वाह-वाही के लिये करोड़ों रुपया प्रतिवर्ष रथयात्रा, विम्वप्रतिष्ठा, दीक्षा-महोत्सवों में व्यय करते हैं और साहित्यनिर्माण में इस लिये कुछ उत्साह नहीं रखते क्योंकि वह समझते हैं कि इस से परलोक में कोई लाभ नहीं । परलोक और पुण्य
के प्रलोभन से किसी भी कार्य के करने का जैनधर्म में निषेध है . और गीता में भी किष्काम-फल की इच्छा न रखते हुये-कार्य करने का उल्लेख है। ... फिरका बन्दी हैं कई और कई जाते हैं।
क्या जमाने में पनपने की यही बाते हैं।'
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