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संसार में तुम चाहे जितना धन कमा लो, तुम इसका और अधिक धन पाने के लिए निवेश करते हो। फिर और धन आता है, तुम इसे और धन के लिए निवेश करते हो, और इस भांति यह चलता चला जाता है। बस साधन, साधन और साधन और साध्य कभी निकट नहीं आता। इसलिए एक मूढ़ व्यक्ति
न कभी यह जान लेता है कि वह एक दुष्चक्र में घूम रहा है और इससे बाहर आने का कोई रास्ता दृष्टिगोचर नहीं होता-सिवाय इसके कि इसे छोड दिया जाए। एक समझदार व्यक्ति के लिएवह व्यक्ति जो जीवन के बारे में सोच विचार करता है, इस पर चिंतन करता है यह बात सुस्पष्ट है।
इसलिए सांसारिक चीजों में अनासक्ति इतनी कठिन नहीं है, किंतु जब इन आंतरिक शक्तियों, मानसिक शक्तियों की बात आती है, तो वे तुम्हारे अस्तित्व के इतने निकट हैं, इतनी अधिक संतोषप्रद हैं, कि उनसे अनासक्त रह पाना करीब-करीब असंभव सा है। लेकिन यदि तुम अनसक्त नहीं हो तो तुमने पुन: एक संसार निर्मित कर लिया और तुम परम मुक्ति से बहुत ही दूर बने रहोगे।
क्योंकि जिस पर भी तुम कब्जा करते हो, वही तुम पर अधिकार कर लेता है, अत: त्याग सम्पूर्ण, समग्र रूप से परिपूर्ण, होना चाहिए। तुम्हें प्रत्येक वह वस्तु जिस पर भी तुम्हारा स्वामित्व संभव हो, अपने निरावृत स्वभाव के अतिरिक्त, छोड़ देना पड़ेगी। जिसका त्याग न किया जा सके, केवल उसी को शेष छोड़ा जा सकता है। जिसका बलिदान किया जा सके उसका बलिदान कर देना चाहिए।
इस सूत्र में पतंजलि करीब-करीब असंभव की मांग कर रहे हैं, लेकिन समझ के माध्यम से यह भी संभव हो जाता है। आध्यात्मिक शक्तियों से संपन्न होना, बहुत संतोषप्रद और महत्ता प्रदान करने वाला होता है, यह अहंकार को इतना सूक्ष्म, इतना शुद्ध आनंद प्रदान करता है कि तुम इसमें कोई दंश अनुभव न कर पाओगे। यह तुम्हें कभी निराश नहीं करता। सांसारिक वस्तुओं में काफी कुछ निराशा होती है- वस्तुत: निराशा के अतिरिक्त और कुछ होता भी नहीं। लोग इसे देखने से किस प्रकार बच सकते हैं यह भी एक चमत्कार है। लोग किस भांति अपने आप को धोखा देते रह सकते हैं
और यह विश्वास किए चले जाते हैं कि अभी भी कुछ आशा है, यह एक चमत्कार है। बाहर का संसार निराशाजनक है, यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
तुम चाहे जितना बड़ा मकान बना लो, या राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक रूप से चाहे जितने भी 'शक्तिशाली हो जाओ, मृत्यु तुमसे सभी कुछ छीनने जा रही है-इसे समझने के लिए कोई बहुत ज्यादा बुद्धिमानी की आवश्यकता नहीं है लेकिन आंतरिक शक्तियां, उन्हें मृत्यु भी छीन नहीं सकती। वे मृत्यु के परे हैं। और वे कभी भी तुम्हें निराश नहीं करतीं। वे तुम्हारी शक्तियां हैं, तुम्हारी साकार हुई संभावनाएं हैं। उन्हें त्याग देने की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, उनको छोड़ने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन पतंजलि यह कह रहे हैं कि उनका भी त्याग करना पड़ेगा। अन्यथा तुम दृश्यों के संसार में-पन एक अहंकार के खेल में जीना आरंभ कर दोगे। और धर्म कोई अहंकार का खेल नहीं है।