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और मैं भी राजी हो गया। यह बेहतर है। कम से कम मैं जीवित तो हं। वरना उन्होंने तो मुझे मार ही डाला होता। मेरे पास बहत अधिक धन है।
और सब कुछ इतना सामान्य और तर्कपूर्ण था कि इस व्यक्ति ने कहा, तुम चिंता मत करो। मैं गवर्नर को जानता हूं और मैं उनके पास जाऊंगा और पूरी बात बता दूंगा। उस पागल आदमी ने कहा. कृपा करें, यदि आप कुछ कर सकते हैं तो कीजिए। जब वह व्यक्ति बस बाहर निकल ही रहा था, अचानक इस पागल आदमी ने उछल कर उसके सर पर जोर से प्रहार किया। उस व्यक्ति ने पूछा, अरे, तुम यह क्या कर रहे हो? इस पागल ने कहा : बस आपको याद दिलाने के लिए...गवर्नर के पास जाना मत भूलिएगा। अब आप नहीं भूलेंगे।
कहीं न कहीं सर्भ
था, लेकिन पागल आदमी और रहस्यदर्शी के बीच अंतर कैसे किया जाए? क्योंकि रहस्यदर्शी में भी एक निश्चित सीमा तक सभी कुछ तर्कपूर्ण प्रतीत होता है। फिर अचानक वह किसी ऐसी चीज के बारे में बात करने लगता है जिसका तुम्हें कभी अनुभव नहीं हुआ था। तब तुम डर जाते हो, और स्वयं को भय से बचाने के लिए तुम अपने भय को तर्क द्वारा समझाने का प्रयास करते हो।
'मन के लिए अपने आप को और किसी अन्य वस्तु को उसी समय में जानना असंभव है।'
ये सूत्र साक्षीभाव के बारे में हैं। पतंजलि क्रमबद्ध रूप से यह कह रहे हैं कि मन के लिए दो कार्य एक साथ कर पाना असंभव है, ज्ञेय हो जाए और शांता भी बन जाए। या तो वह जान सकता है या उसके बारे में जाना जा सकता है। इसलिए जब तुम अपने मन के साक्षी हो सकते हो तो यह बात आत्यंतिक रूप से सिद्ध कर देती है कि मन ज्ञाता नहीं है। तुम ज्ञाता हो। तुम शरीर नहीं हो; तुम मन भी नहीं हो। सारा जोर इस बात पर है. जो तुम नहीं हो उससे अंतर करने में तुम्हारी सहायता किस भांति की जाए।
'यदि यह मान लिया जाए कि दूसरा मन पहले मन को प्रकाशित करता है, तो बोध के बोध की कल्पना करनी पड़ेगी, और इससे स्मृतियों का संशय उत्पन्न होगा।'
लेकिन ऐसे भी दर्शनशास्त्री हए हैं जिनका कहना है कि साक्षी को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है, हम एक और मन को मान सकते है : पहले मन को दूसरे मन के द्वारा जान लिया जाता है। यही वह बात है जिससे मनोवैज्ञानिक भी सहमत होंगे, क्योंकि किसी नितांत अज्ञात वस्तु को क्यों महत्व देना? मन का स्वय मन के दवारा, एक सक्ष्म मन दवारा निरीक्षण किया जाता है। लेकिन पतंजलि इस दृष्टिकोण का एक तहत तर्कपूर्ण खंडन प्रस्तुत करते है। वे कहते हैं, यदि तुम यह मान लो कि पहले मन का ज्ञान दूसरे मन द्वारा होता है, तो दूसरे मन का ज्ञान कि सकी होता है? फिर तीसरा मन, फिर तीसरे मन का ज्ञान किसको होता है? फिर इससे संशय निर्मित होगा। यह पीछे लौटते जाने की एक अंतहीन प्रक्रिया होगी। फिर तुम बढ़ते चले जाओ अनंत तक और पुन: यदि तुम कहते हो, एक