Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 05
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 402
________________ पतंजलि तुम्हारे जीवन को संतुलित करना, उसमें एक साम्य लाना चाहेंगे। मध्य में कहीं उस स्थान पर जहां पर तुम भोजन के प्रति दीवाने नहीं हो, और तुम भोजन के विरोध में भी दीवाने नहीं हो, जहां पर न तो तुम स्त्रियों या पुरुषों के पीछे दीवाने हो और तुम उनके विरोध में भी दीवाने नहीं हो, तुम बस संतुलित हो, प्रशांत हो। एक मनस्विद का कहना है कि हम अपने व्यवहार में कुछ विचित्र हैं। हम सभी अपने व्यवहार में थोडे विचित्र हैं। इस बात को कहने का दूसरा ढंग यह है कि मैं मौलिक हूं तुम सनकी हो, वह मूर्ख है। जब तुम वही कार्य करते हो तो तुम सोचते हो कि तुम मौलिक हो, जब तुम्हारा मित्र वही कार्य कर रहा होता है तो तुम सोचते हो कि वह सनकी है, और तुम्हारा शत्रु जब वही कार्य कर रहा है तो तुम सोचते हो कि वह मूर्ख है। याद रखो, सोचने का यही अहंकारपूर्ण ढंग विकास के सारे अवसरों को नष्ट कर देगा। अपने बारे में बहुत वस्तुनिष्ट हो जाओ। प्रत्येक व्यक्ति में पागलपन की प्रवृति है, क्योंकि लाखों वर्षों से मानव-जाति विक्षिप्त रही है। प्रत्येक व्यक्ति में स्नायु रोगी की प्रवृति है, क्योंकि हमारी सभ्यता अभी तक उस बिंदु पर नहीं आई है जहां पर यह मनुष्य को संपूर्ण क्रियाकलाप की अनुमति दे सके। यह दमनात्मक रही है। इसलिए निरीक्षण करो : यदि तुम विक्षिप्त हो तो तुम बहुत अधिक खा लोगे। तम दसरी अति पर जा सकते हों-तम भोजन करना परी तरह से बंद कर सकते हो-लेकिन तुम्हारा पागलपन वैसा ही रहता है। अब पागलपन भोजन के विरोध में है। और ऐसा मत सोचो कि तुम एक महान आध्यात्मिक, बहुत मौलिक कार्य रहे हो। एक बार वीणा मेरे पास एक लडके को लेकर आई। वस्तुत: उसका मुझसे संबंध ही तब बना। वह किसी और लड़के को लेकर आई थी जो करीब-करीब पागल था। वह मुझसे यह पूछने आया था, 'क्या मनुष्य केवल पानी पर जी सकता है?' वह केवल पानी पर जीवित रहना चाहता था। और वह बेहद दुबला और पीला और लगभग मृतप्राय था। जब मैंने कहा, मूर्ख मत बनो, तो वह प्रसन्न नहीं हुआ। उसने कहा, बस मुझको किसी का पता बता दें, कुछ लोग जो मेरी सहायता कर सकें, क्योंकि मैं केवल पानी पर जीना चाहता हूं। प्रत्येक वस्तु अशुद्ध है-केवल पानी ही शुद्ध है। विक्षिप्त हैं ये लोग। सारे भारत में वे मिल जाएंगे. आश्रमों में, मठों में। सौ में पिचानबे लोगों को तुम विक्षिप्त पाओगे। और उनको तुम पागल कह नहीं सकते क्योंकि वे लोग योग, आसन, उपवास, प्रार्थना, यह और वह कर रहे हैं। लेकिन उनके पागलपन को तुरंत देखा जा सकता है। किसे पागलपन कह रहा हूं मैं? कोई भी अतिवाद पागलपन है। संतुलित होना ही स्वस्थ होना है, असंतुलित होना विक्षिप्तता है। जब कभी भी तुमको स्वयं के भीतर या किसी और में कहीं असंतुलन दिखाई पड़े, सचेत हो जाओ। वरना तुम परम लयबद्धता से चूक जाओगे। एकागी, असंतुलित होकर तुम उस आकेस्ट्रा का सृजन नहीं कर सकते, जिसकी झलक तमको देने का प्रयास पंतजलि कर रहे हैं। 'मन की वृत्तियों का ज्ञान सदैव इसके प्रभु, पुरुष, को शुद्ध चेतना के सातत्य के कारण होता है।'

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