Book Title: Patanjali Yoga Sutra Part 05
Author(s): Osho
Publisher: Unknown

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Page 412
________________ स्मरण रखो, तुम्हारा मन लगातार तुम्हारे साथ चालाकियां खेल रहा है। विरोधाभास जरा भी नहीं है, विरोधाभास तुमने बना लिया है। अब मैं प्रश्न का शेष भाग पढूंगा-देखो जोर किस बात पर है। 'मेरे भीतर एक भाग है जो कहता है, यदि मैं अपने स्वयं के स्व में श्रद्धा करता हूं और अपनइ स्वयं के स्व का अनसरण करता है तो मैंने आपके समक्ष समर्पण कर दिया है और आपको हां कह दिया है। लेकिन यह केवल एक भाग है; और शेष भाग के बारे में क्या? यदि तुम इस भाग पर भरोसा करो, ष मन कहेगा, तम क्या कर रहे हो? इसी भांति संदेह उठ खड़ा होता है। यदि तम प्रश्न के शेष भाग को सुनो, तो यह भाग संदेहों को निर्मित करता चला जाएगा। इसी प्रकार से मन गति करता है-सदा दुविधा में। यह अपने विरोध में अपने आप को विभाजित कर लेता है, और यह लुका-छिपी का खेल खेलता चला जाता है। इसलिए जो कुछ भी तुम करते हो, हताशा आती ही है-जो कुछ भी कर लो। लेकिन हताशा को अवश्य आना है। यदि तुम मुझ पर श्रद्धा करो तो तुम्हारे मन का एक भाग कहता चला जाएगा, तुम यह क्या कर रहे हो? मैं सदा से तुमसे कहता हूं बस अपने ऊपर श्रद्धा करो। यदि तुम मुझ पर श्रद्धा न करो और स्वयं पर श्रद्धा करो, तो मन का दूसरा भाग लगातार हताश होता रहेगा। यह कहेगा, तुम यह क्या कर रहे हो? उन पर श्रद्धा करो। समर्पण कर दो। अब मन के दोहरेपन को देखो। यदि तुम मन के इस सतत विभाजन को देख सको जो कभी भी पूर्ण निर्णय पर नहीं पहुंच पाता, तो धीरे-धीरे तुम्हारे भीतर एक भिन्न प्रकार की चेतना उठ खड़ी होगी जो पूरी तरह से निर्णय कर कती है। यह निर्णय मन का नहीं है।' इसीलिए मैं कहता हैं कि समर्पण मन का कृत्य नहीं है। श्रद्धा मन से किया गया कृत्य नहीं है। मन श्रद्धा नहीं कर सकता। अश्रद्धा मन के लिए बहुत स्वाभाविक है, यह अंतःनिर्मित है। मन का अस्तित्व अश्रदधा पर, 'संदेह पर निर्भर है। जब तम अत्यधिक संदेह में होते हो तो तमको अपने भीतर अत्यधिक मनन शीलता, हलचल दिखाई पड़ती है। मन अत्यधिक सक्रिय हो जाता है। लेकिन जब तुम श्रद्धा करते हो, तो मन के करने के लिए कुछ भी नहीं है। क्या तुमने कभी इसको देखा है? जब तुम कहते हो, नहीं, तो तुम अपनी चेतना के शांत सरोवर में एक पत्थर फेंक देते हो; लाखों तरंगें उठती हैं। जब तुम कहते हो, हां, तो तुम कोई पत्थर नहीं फेंक रहे हो, अधिक से अधिक तुम झील में एक फूल तैरा रहे हो। बिना किसी तरंग के फूल तैरता रहता है। यही कारण है कि लोगों को यह बहुत कठिन लगता है कि हां कहा जाए, और यह बहुत सरल लगता है कि न कह दिया जाए। न तो सदैव बिलकुल तैयार है। उससे पहले कि तुमने सुना हो न तैयार है। मैं एक बार मुल्ला नसरुद्दीन के घर ठहरा हुआ था। मैंने सुना, पत्नी नसरुद्दीन से कह रही थी, नसरुद्दीन जरा बाहर जाकर देखो कि बच्चा क्या कर रहा है और उसको मना कर दो।

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