________________ तुम्हारे भीतर है। बाहर की स्त्री भीतर की स्त्री की ओर जाने का एक मार्ग भर है; और बाहर का पुरुष भी भीतर के पुरुष की ओर जाने का बस एक रास्ता है। वास्तविक चरम सुख तुम्हारे भीतर घटित होता है, जब तुम्हारे भीतर का पुरुष और स्त्री मिल जाते हैं। हिंदू धर्म के अर्धनारीश्वर प्रतीक का यही ताने शिव को अवश्य देखा होगा : आधे पुरुष, आधी स्त्री। प्रत्येक पुरुष आधा पुरुष है, आधा स्त्री है; प्रत्येक स्त्री आधी स्त्री है, आधी पुरुष है। ऐसा होना ही है, क्योंकि तुम्हारा आधा अस्तित्व तुम्हारे पिता से आता है और आधा अस्तित्व तुम्हारी मां से आता है। तुम दोनों हो। एक भीतरी चरम आनंद, एक आंतरिक मिलन, एक आंतरिक संयोग की आवश्यकता है। लेकिन उस भीतरी संयोग तक पहुंचने के लिए तुमको बाहर की स्त्री खोजनी पड़ेगी जो भीतरी स्त्री को प्रतिसंवेदित करती हो, जो तुम्हारे आंतरिक अस्तित्व को स्पंदित करती हो। और तब तुम्हारी आंतरिक स्त्री जो गहरी नींद में सो रही है, जाग जाती है। बाहर की स्त्री के माध्यम से तुम्हारा भीतर की स्त्री के साथ सम्मिलन हो जाएगा; और यही सब भीतर के परुष के लिए भी होता है। इसलिए यदि संबंध लंबे समय के लिए चलता है, तो यह बेहतर होगा; क्योंकि आंतरिक स्त्री को जागने के लिए समय चाहिए। जैसा कि पश्चिम में हो रहा है-छकर भाग जाने वाले संबंध-आंतरिक स्त्री को समय ही नहीं मिलता, आंतरिक परुष को समय ही नहीं मिलता कि उठे और जाग जाए। जब तक भीतर कुछ करवट लेता है बाहर की स्त्री जा चुकी होती है.. .फिर कोई और स्त्री दूसरे प्रकार की तरंगें लिए हुए, अन्य प्रकार का परिवेश लिए हुए आ जाती है। और निःसंदेह यदि तुम अपनी स्त्री और अपने पुरुष को बदलते चले जाओ, तो तुम विक्षिप्त हो जाओगे; क्योंकि तुम्हारे अस्तित्व में इतनी प्रकार की चीजें, इतनी प्रकार की ध्वनियां, कंपनों की इतनी सारी विविधताएं प्रविष्ट हो जाएंगी कि तुम अपनी आंतरिक स्त्री को खोज पाने के स्थान पर उलझ जाओगे। यह कठिन होगा। और संभावना यह है कि तुम्हें परिवर्तन की लत पड़ जाएगी। तुम बदलाहट का मजा लेना आरंभ कर दोगे। तब तुम खो जाओगे। बाहर की स्त्री भीतर की स्त्री की ओर जाने का रास्ता भर है, और बाहर का पुरुष भीतर के पुरुष की ओर जाने का मार्ग है। और तुम्हारे भीतर परम योग, रहस्यमय-मिलन, यूनिओ मिस्टिका घटित हो जाता है। और जब यह घटित हो जाता है तब तुम सारी स्त्रियों और सारे पुरुषों से मुक्त हो जाते हो। तब तुम पुरुष और स्त्रीपन से मुक्त हो। तब अचानक तुम दोनों के पार चले जाते हो; फिर तुम दोनों में से कुछ भी नहीं रहते। यही है अतिक्रमण। यही ब्रह्मचर्य है। तब पुन: तुम अपने शुद्ध कंआरेपन को उपलब्ध कर लेते हो, तुम्हारा मौलिक स्वभाव तुमको पुन: मिल जाता है। पतंजलि की भाषावली में यही कैवल्य है। आज इतना ही।