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पहली बात, क्योंकि मनुष्य आत्यंतिक रूप से प्रसन्न हो सकता है, इसकी संभावना है, इसीलिए
उसकी अप्रसन्नता है। और अन्य कोई भी-कोई पश, कोई पक्षी, कोई वृक्ष, कोई चट्टान, इतनी प्रसन्न नहीं हो सकती जितना प्रसन्न मनष्य हो सकता है। यह संभावना, यह आत्यंतिक संभावना कि तम प्रसन्न, शाश्वत रूप से प्रसन्न हो सकते हो, कि तुम आनंद के पर्वत के शिखर पर हो सकते हो, अप्रसन्नता निर्मित करती है। और जब तुम अपने चारों ओर देखते हो कि तुम बस एक घाटी में हो, एक अंधेरी घाटी और तुम शिखर के ऊपर हो सकते हो : यह तुलना, यह संभावना, और तुम्हारी वर्तमान की वास्तविकता, अप्रसन्नता का कारण है।
यदि तुम बुद्ध होने के लिए नहीं जन्मे होते, तो जरा सी भी अप्रसन्नता नहीं होती। इसीलिए जो व्यक्ति जितना ग्रहणशील होता है वह उतना ही अप्रसन्न है। व्यक्ति जितना संवेदनशील है उतना ही अप्रसन्न होता है। व्यक्ति जितना अधिक सजग है उतनी अधिक उदासी उसको अनुभव होती है, उतना ही वह इस संभावना को और इस विरोधाभास को कि कुछ हो नहीं रहा है और वह अटक गया है, अधिक अनुभव करता है।
मनुष्य अप्रसन्न है, क्योंकि मनुष्य आत्यंतिक रूप से प्रसन्न हो सकता है। और अप्रसन्नता बुरी बात नहीं है। यही वह प्रेरक तत्व है जो तुमको शिखर पर लेकर जाएगा। यदि तुम अप्रसन्न नहीं हो, तो तुम चलोगे ही नहीं। यदि तुम अपनी अंधेरी घाटी में अप्रसन्न नहीं हो, तो तुम ऊपर पर्वत पर आरोहण का कोई प्रयास क्यों करोगे? जब तक कि शिखर पर चमकता हुआ सूर्य एक चुनौती न बन जाए, जब तक कि शिखर का होना ही वहां पहुंचने की दीवानगी भरी अभीप्सा ही न बन जाए, जब तक. कि वह चरम संभावना तुमको खोज लेने और पा लेने के लिए न उकसा दें-जटिल होने जा रहा है यह मामला। वे लोग जो बहुत सजग, संवेदनशील नहीं हैं, बहुत अप्रसन्न नहीं हैं। क्या तुमने कभी किसी मूढ़ को अप्रसन्न देखा है? असंभव। एक मूढ़ अप्रसन्न नहीं हो सकता, क्योंकि वह उस संभावना के प्रति, जिसको वह अपने भीतर लिए हुए है, सजग नहीं है।
तुम इस बात के प्रति सजग हो कि तुम एक बीज हो और वृक्ष हो सकते हो। बस यहीं पर है यह। लक्ष्य बहुत दूर नहीं है, यही तुमको अप्रसन्न कर देता है। शुभ है यह संकेत। गहनता से अप्रसन्नता को अनुभव करना पहला कदम है। निश्चित है कि बुद्ध इस बात को तुमसे अधिक अनुभव करते हैं। इसीलिए उन्होंने घाटी का त्याग कर दिया और उन्होंने ऊपर की ओर चढ़ना आरंभ कर दिया। छोटीछोटी बातें जो प्रतिदिन तुम्हारे सामने आ जाती हैं, उनके लिए बड़ी प्रेरणा बन गईं। एक व्यक्ति को रुग्ण देखना, एक वृद्ध व्यक्ति को उसकी लाठी टेक कर चलता हुआ देखना, एक शव को देख लेना उनके लिए पर्याप्त था, उसी रात उन्होंने अपना राजमहल त्याग दिया। वे उस अवस्था के प्रति सजग हो गए जहां वे थे 'यही मेरे साथ होने जा रहा है। आज नहीं तो कल मैं भी रुग्ण, वृद्ध और मृत हो जाऊंगा, अत: यहां रहने में क्या सार है? इससे पूर्व कि यह अवसर मुझसे छीन लिया जाए मुझे कुछ