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पहले कि तुम आसक्त होना आरंभ करो वे सचेत हैं, बहुत सचेत हैं। वे तुमको उनके निकट नहीं पहुंचने देंगे। यह एक अति है। तुम्हारे अहंकार को बहुत अच्छा अनुभव होता है कि तुम्हारा कोई गुरु नहीं है, कि तम्हें किसी के प्रति समर्पण नहीं करना पड़ता है। तम और समर्पण करते हए? यह अच्छा नहीं दिखाई पड़ता, यह तो अपमान जैसा दिखाई पड़ता है। तुम्हें बहुत अच्छा लगता है। कृष्णमूर्ति के पास सभी प्रकार के अहंकारी एक साथ उनके चारों ओर एकत्रित हो गए हैं। यदि तुम सर्वाधिक सुसंस्कृत अहंकारियों को खोजना चाहते हो तो तुमको वे कृष्णमूर्ति के चारों ओर मिल जाएंगे। वे बहुत सुसंस्कृत, परिष्कृत, बहुत बुद्धिजीवी, बहुत चालाक और चतुर, तार्किक, बुद्धिवादी हैं, किंतु उनको कुछ भी नहीं हुआ है। उनमें से अनेक मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, हमें पता है, हम समझते हैं, लेकिन हमारी समझ बौद्धिक बनी हुई है। कुछ भी नहीं हुआ है। हमारा कोई रूपांतरण नहीं हुआ है, इसलिए क्या सार है इस भांति सुनने में? कृष्णमूर्ति कहते हैं, उनसे बंधो मत, लेकिन तुम अपने आप से बंध रहे हो। यदि इस बंधने में कोई चुनाव करना हो तो कृष्णमूर्ति से आसक्त हो जाना अपने आप से बंधने से बेहतर है। कम से कम तुम किसी श्रेष्ठ व्यक्ति से आसक्त हो रहे हो। फिर एक अन्य अति भी है। ऐसे गुरु हैं जिनका जोर इस बात पर है कि तुमको उनसे बंधे रहना चाहिए। समर्पण साध्य प्रतीत होता है, साधन नहीं। वे कहते हैं, पूरी तरह से मेरे साथ बने रहो। कभी अपने घर वापस मत लौटना। यह भी खतरनाक प्रतीत होता है, क्योंकि तब तुम सदैव रास्ते पर होते हो और मंजिल पर कभी नहीं पहुंचते-क्योंकि मंजिल तो तुम ही हो। मैं एक पथ बन सकता हूं, कृष्णमूर्ति तुम्हें उनको पथ बनाने की अनुमति नहीं देंगे। फिर दूसरे लोग हैं जो तुमको लक्ष्य नहीं बनने देंगे। वे कहते हैं, चलते रहो, चलते चले जाओ, चरैवेति-चरैवेति। तुम सदा तीर्थयात्रा करते रहते हो, और तुम पहुंचते कभी नहीं क्योंकि तुप्तें अपने अंतर्तम अस्तित्व पर ही तो पहुंचना पड़ता है। तुम्हारा आगमन बिंदु मैं नहीं हो सकता। मैं किस भांति तुम्हारा आगमन बिंदु हो सकता हूं? आज नहीं तो कल तुमको मुझे अपना प्रस्थान-बिंदु बनाना पड़ता है।
मैं न तो कृष्णमूर्ति से राजी हूं न ही दूसरे अतिवादियों से। मैं कहता हूं : 'मेरा एक पथ की भांति प्रयोग कर लो, लेकिन स्मरण रखो, 'एक पथ की भांति।' और यदि मैं लक्ष्य बनने लगू तो तुरंत ही मुझे मार डालो-तुरंत मुझे त्याग दो क्योंकि अब औषधि रोग की भांति हुई जा रही है। औषधि को प्रयोग किया जाना और भूल जाना चाहिए। तुम्हें अपने साथ लगातार चिकित्सक का परामर्श और दवा की बोतलें लिए लिए नहीं फिरना है। यह एक साधन, उपकरण था, अब तुम स्वस्थ हो, छोड़ दो इसे, इसके बारे में सभी कुछ भूल जाओ। इसके प्रति आभारी रहो, इसके प्रति अहोभाव से. भरो, लेकिन इसको लिए लिए नहीं फिरना है।
बदध ने कहा कि पांच मों ने नदी पार की, फिर उन सभी ने सोचना शुरू कर दिया-मूर्ख तो सदा दार्शनिक होते हैं, और इसका उलटा भी सत्य है-वे सोचने लगे, क्या किया जाए? इस नाव ने हमारी कितनी अधिक सहायता की है, वरना हम तो दूसरे किनारे पर मर ही गए होते। उधर जंगल था, और