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मैं पीठ के बल लुढुक जाऊंगा, मूर्ख बुड्डे! मुंहतोड़ जवाब देते हुए तोते ने कहा।
और मनुष्य के साथ भी यही हो गया है। यदि तुम एक टांग खींचो तो ठीक है; यदि तुम दूसरी टांग खींचो तो यह भी सही है; लेकिन यदि तुम दोनों पैर खींच लो तो प्रत्येक चीज को नीचे लुढ़क ही जाना है, यही तो मनुष्य के साथ हो गया है। उसके पूरे अस्तित्व को नीचे खींच लिया गया है। धर्म उसके शरीर को नीचे खींचने का प्रयास करते रहे हैं। उसके शरीर के प्रति वे बहुत अधिक भयभीत, बहुत अपराध-बोध से भरे हुए हैं। वे लगातार शरीर को विनष्ट करने का और उसको विषाक्त करने का प्रयास करते रहे हैं। वे तुमको प्रेतों की भांति शरीरविहीन देखना चाहेंगे। उनका खयाल यही है कि शरीर अपने अंतर्तम से ही गलत है, कि शरीर पाप-काया है। इसलिए तुमको आत्माओं की भांति होना चाहिए, शरीर के बिना, देहविहीन।
अब भौतिकवादी, साम्यवादी, मार्क्सवादी, वैज्ञानिक दूसरे ढंग से प्रयास कर रहे हैं। वे दूसरी टाँग को खींचने का प्रयास कर रहे हैं। वे कहते हैं कि चेतना जैसी कोई चीज नहीं होती; आत्मा नहीं है। यह भौतिक और रासायनिक वस्तुओं का संयोजन मात्र है, जो तुम हो। तुमको शरीर ही होना चाहिए और कुछ भी नहीं। अब दोनों ने एक साथ दोनों टांगें खीच ली हैं, और पूरा का पूरा मनुष्य ही एक पीड़ित जीव, एक रोग, एक दुविधा बन चुका है।
पतंजलि कहते हैं : 'हर वस्तु को स्वीकार करो, इसका प्रयोग करो, इसके बारे में सृजनात्मक बनो, निषेध मत करो।' इनकार उनका ढंग नहीं है, बल्कि स्वीकार है उनका उपाय। यही कारण है कि पतंजलि ने शरीर पर, भोजन पर, योगासनों पर, प्राणायाम पर, इतना अधिक कार्य किया है। ये सभी प्रयास लयबद्धता निर्मित करने के लिए हैं; शरीर के लिए सम्यक आहार, शरीर के लिए सम्यक आसन, प्राण शरीर के लिए लयबद्ध श्वसन क्रिया। अधिक प्राण, अधिक जीवंतता को आत्मसात करना पड़ेगा। ऐसे ढंग और उपाय खोजने पड़ते हैं जिससे तुम कभी सतत ऊर्जा विहीनता से पीड़ित न रहो, बल्कि ऊर्जा के अतिरेक में रहो।
मन के साथ भी प्रत्याहार, मन एक सेत् है; तुम सेत् से बाहर की ओर जा सकते हो, तुम उसी पुल पर चल सकते हो और भीतर जा सकते हो। जब तुम बाहर की ओर जाते हो तो वस्तुएं, इच्छाएं, तुमको प्रभावित करती हैं। जब तुम भीतर की ओर जाते हो तो इच्छाविहीनता, जागरूकता, साक्षीभाव तुम्हारे ऊपर प्रभाव डालते हैं, लेकिन सेतु वही है। इसका प्रयोग करना पड़ता है, इसको तोड़ कर फेंक नहीं देना है, इसकी विनष्ट नहीं कर देना है, क्योंकि यह वही सेतु है जिससे तुम संसार में आए हो और जिससे होकर ही तुमको पुन: आंतरिक स्वभाव में लौटना पड़ता है, और इसी प्रकार इसे किया जा सकता है।
पतंजलि प्रत्येक वस्तु का उपयोग किए चले जाते हैं। उनका धर्म भय का नहीं बल्कि समझ का धर्म है। उनका धर्म परमात्मा के लिए, और संसार के विरोध में नही है। उनका धर्म संसार के माध्यम से परमात्मा के लिए है, क्योंकि परमात्मा और संसार दो नहीं है। संसार परमात्मा का सृजन है। यह