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है और बाह्य पक्ष भ्रम है? यदि बाह्य पक्ष भ्रम है तो भीतरी पक्ष स्वत: ही भ्रम हो जाएगा। यदि तुम्हारे मकान का भीतरी भाग वास्तविक है और बाहरी भाग अवास्तविक, तो तुम उनके मध्य अंतर किस प्रकार से करोगे? कहां पर वास्तविकता समाप्त होती है और भ्रम आरंभ हो जाता है? और एक
सा बाह्य पक्ष जो भ्रामक हो उसका भीतरी पक्ष यथार्थ कैसे हो सकता है? एक अवास्तविक शरीर में एक अवास्तविक मन होगा, एक अवास्तविक मन के पास एक अवास्तविक चेतना होगी। असली चेतना के लिए एक असली मन चाहिए, एक असली मन के लिए वास्तविक शरीर चाहिए, वास्तविक शरीर के लिए यथार्थ संसार चाहिए।
योग किसी चीज से इनकार नहीं करता। योग नितांत यथार्थवादी है, अनुभवात्मक है। यह विज्ञान से अधिक वैज्ञानिक है, और धर्मों से अधिक धार्मिक है, क्योंकि यह अंतस और बाह्य का एक महत्तर संश्लेषण निर्मित करता है।
'यदयपि मन असंख्य वासनाओं के रंग में रंगता है, फिर भी मन लगातार उनकी पूर्ति हेतु कार्य करता है, इसके लिए यह सहयोग से कार्य करता है।'
मन लगातार कार्य करता चला जाता है, किंतु यह अपने लिए कार्य नहीं कर रहा है। इसके पास प्रबंधकीय पद है, मालिक पीछे छिपा हुआ है। यह मालिक के साथ सहयोग करता है। अब इसको गहराई से समझ लेना पड़ेगा।
यदि मन मालिक के साथ सहयोग करता है तो तुम स्वस्थ एवं पूर्ण हो। यदि मन भटक जाता है, मालिक के विरोध में हो जाता है, तो तुम रुग्ण और अस्वस्थ हो। यदि नौकर मालिक का छाया की भांति अनुसरण करता है, तो सभी कुछ ठीक है। यदि मालिक कहता है, बाईं ओर जाओ और नौक दाईं ओर चला जाता है, तो कुछ गड़बड़ हो गई है। यदि तुम चाहो कि तुम्हारा शरीर दौड़े और शरीर कहता है, मैं नहीं दौड़ सकता, तब तुम पंगु हो। यदि तुम कुछ करना चाहते हो और शरीर और मन कहते हैं, नहीं, या वे कुछ ऐसा किए चले जाते हैं जिसको तुम नहीं करना चाहते, तब तुम एक बडे संशय में घिर जाते हो। इसी प्रकार से सारी मनष्य-जाति जी रही है।
योग ने इसे एक लक्ष्य बना रखा है कि तुम्हारे मन को तुम्हारे प्रभु, अंतर्तम आत्मा के अनुसार कार्य करना चाहिए। तुम्हारे शरीर को तुम्हारे मन के अनुरूप कार्य करना चाहिए, और तुमको अपने चारों ओर एक ऐसा संसार निर्मित करना है जो सहयोग में हो। जब प्रत्येक वस्तु सहयोग में हो-निम्नतर सदैव उच्चतर के सहयोग में है, उच्चतर सदा उच्चतम के सहयोग में है, और उच्चतम आत्यंतिक परम सत्ता के सहयोग में है-तब तुम्हारा जीवन एक लयबद्धता है। तब तुम एक योगी हो। फिर तुम एक हो जाते हो, किंतु इस अर्थ में नहीं कि केवल एक का ही अस्तित्व रहता है, अब तुम एक स्वर के अर्थ में एक हो गए हो। तुम एक आर्केस्ट्रा के अर्थ में: वायर्यत्र अनेक हैं, लेकिन संगीत एक ही है, तुम एक हो गए हो- अनेक शरीर, लाखों विषय-वासनाएं, महत्वाकांक्षाएं, भाव-दशाएं, शिखर और घाटियां,