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खोलते हो, विदयुत प्रत्युत्तर नहीं देती, यह प्रतिक्रिया करती है। यह यांत्रिक है। बिजली के सक्रिय हो जाने में और तुम्हारे द्वारा बटन दबाए जाने में कोई अंतराल नहीं होता। वहां विचार का, जागरुकता का, चेतना का, जरा सा अंतराल भी नहीं होता।
यदि तुम अपने जीवन में प्रतिक्रिया करते चले जाओ-किसी ने तुम्हारा अपमान किया है और तुम क्रोधित हो उठे, किसी ने कुछ कह दिया है और तुम उदास हो गए, किसी ने कुछ बात कह दी है, तुम अति प्रसन्न हो गए हों-यदि यह प्रतिक्रिया है, बटन दबा कर सक्रिय हो जाने की प्रतिक्रिया, तो धीरेधीरे तुम विश्वास करना आरंभ कर दोगे कि तुम शरीर हो।
यह शरीर एक यांत्रिकता है। यह तुम नहीं हो। तुम इसमें रहते हो, यह तुम्हारा आवास है, लेकिन तुम यह नहीं हो। तुम पूर्णत: भिन्न हो।
यह वह पहला झूठ है जो जीवन को पंगु बना देता है। फिर एक दूसरा असत्य है कि मैं मन हूं। और यह पहले से अधिक गहरा है, स्पष्ट है, क्योंकि मन शरीर की तुलना में तुम्हारे अधिक निकट है। तुम विचार सोचते रहते हो, स्वप्न देखते रहते हो और वे तुम्हारे इतना निकट आ जाते हैं, कि तुम्हारे अस्तित्व को करीब-करीब छूने लगते हैं, तुमको चारों ओर से घेरे हुए, तुम उनमें भी विश्वास करने लगते हो। तब तुम मन हो जाते हो। मन भी प्रतिक्रिया करता है।
जिस क्षण तुम प्रत्युत्तर देना आरंभ करते हो तुम आत्मा हो जाते हो। प्रत्युत्तर का अभिप्राय है कि अब तुम यांत्रिक ढंग से प्रतिक्रिया नहीं कर रहे हो। तुम मनन करते हो, तुम ध्यान करते हो, तुम अपनी चेतना को निर्णय करने के लिए अंतराल देते हो। निर्णायक तत्व तुम हो। कोई तुम्हारा अपमान करता है, प्रतिक्रिया में निर्णायक तत्व वह है। तुम बस प्रतिक्रिया करते हो, वह तुम्हारी क्रिया को प्रभावित करता है। प्रत्युत्तर में तुम निर्णायक तत्व हो; किसी ने तुम्हारा अपमान किया है-यह बात प्राथमिक नहीं है, यह बात दूसरे स्थान पर है। तुम इस पर विचार करते हो। तुम निर्णय करते हो यह करना है या वह करना है। तुम इससे उद्वेलित नहीं हुए हो। तुम अस्पर्शित रहते हो, तुम अलग रहते हो, तुम दृष्टा बने रहते हो।
इन दोनों असत्यों को खंडित करना पड़ेगा। ये आधारभूत असत्य हैं, मैं उन लाखों असत्यों को नहीं गिन रहा हूं जो आधारभूत नहीं है। तुम स्वयं का नाम के साथ तादात्म्य किए चले जाते हो। नाम महज एक उपयोगिता एक लेबल है। तुम नाम के साथ नहीं आते हो और तुम नाम के साथ जाते भी नहीं हो। नाम तो बस समाज के दवारा उपयोग में लाया जाता है, किसी समाज में नाम के बिना रह पाना कठिन होगा। वरना तो तुम नाम विहीन हो। फिर तुम सोचते हो कि तुम किसी धर्म, किसी निश्चित जाति से जुड़े हुए हो। तुम सोचते हो कि तुम एक व्यक्ति से संबंधित हो जो तुम्हारा पिता है, एक स्त्री जो तुम्हारी माता है। हां तुम उनके माध्यम से आए हो, लेकिन तुम उनसे संबंधित नहीं हो। वे रास्ता रहे हैं,तुमने उनसे यात्रा की है किंतु तुम भिन्न हो।