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यक्ति कभी नहीं जानता कि प्रेम संबंध का परिणाम क्या होने वाला है। यह सदैव डगमगाता रहता है। यह कभी सुविधाजनक नहीं है, यह कभी आरामदायक नहीं है। यह तुम्हारे लिए आनंद के क्षण ला सकता है, लेकिन यह नरक भी लाता है। यह पीड़ापूर्ण विकास है, लेकिन सारा विकास पीड़ापूर्ण होता है। व्यक्ति का विकास पीड़ा के बिना कभी नहीं होता। पीड़ा उसका भाग है एक आवश्यक भाग है। यदि तुम पीडा से बचते हो तो तुम विकास से भी बच जाते हो।
बहुत से लोग कहीं न कहीं रुक जाते हैं। कुछ लोग महत्वाकांक्षा में रुक गए हैं, राजनीतिज्ञ बन गए हैं। उन्हें प्रेम की कोई चिंता नहीं है। वे कहते हैं कि उनको संसार में महान कार्य करने हैं। वे शक्ति के बारे में चिंतित हैं, वे शक्ति का प्रयोग पलायन के लिए करते हैं। कुछ अपने आश्रमों में दफन हो गए हैं; कुछ अपने परिवारों में, विवाह, बच्चे, यह और वह में दफन हो चुके हैं, लेकिन मैं कठिनता से ही किसी ऐसे व्यक्ति के संपर्क में आता हूं जिसने प्रेम की चुनौती का, वहां जो बड़े से बड़ा तूफान है उसका सामना किया हो। लेकिन जिसने इसका सामना कर लिया है वही विकसित होता है। एक दिन वह इससे बाहर आता है, शुद्ध, निर्मल, परिपक्व।
अब तुम पूछते हो : 'क्या व्यक्ति जीवन का आनंद अकेले नहीं ले सकता?'
तुम अकेले प्रसन्न हो सकते हो, लेकिन तुम आनंद नहीं ले सकते। एक ढंग से तुम प्रसन्न हो सकते हो, क्योंकि वहां कोई व्यवधान, कोई उपद्रव, कोई संघर्ष नहीं होगा। तुम्हारी प्रसन्नता शांति की भांति अधिक होगी, आनंद की भांति कम। इसमें कोई समाधि की छाया न होगी। आनंद पर समाधि का बहुत प्रभाव होता है, आनंद बहुत कुछ नृत्य की भांति होता है। प्रसन्नता ऐसी है जैसे कि तुम अपने स्नानगृह में गाना गाते हों-स्नानागार गायन-यह बहुत –कुनकुना होता है; तुम इसे अकेले कर सकते हो। तुम इसे सदैव अपने स्नानगृह में करते हो क्योंकि तुम अकेले हो। लेकिन दूसरे लोगों के साथ गायन और नृत्य पूरी तरह उनसे आविष्ट हो जाना, यह आनंद है। आनंद एक बांटने वाली अनुभूति है, प्रसन्नता न बांट सकने वाला अनुभव है।
वे लोग जो कंजूस हैं सदैव प्रसन्नता की तलाश करते हैं, आनंद की नहीं; क्योंकि आनंद को बांटने की आवश्यकता केले आनंदित नहीं हो सकते। एक विशेष वातावरण की आवश्यकता पड़ती है, एक विशिष्ट जलवायु की आवश्यकता पड़ती है, लोगों की, व्यक्तियों की, चेतना की एक विशिष्ट उमंग की आवश्यकता पड़ती है। अकेले, बहुत हुआ तो तुम प्रसन्न ही हो सकते हो।
और स्मरण रखो, प्रसन्नता कोई बहुत खुश होने वाली बात नहीं है।
आनंद वास्तव में उर्ध्वगमन है आनंद है चरम उत्कर्ष, शिखरों की भांति; प्रसन्नता समतल मैदान है : व्यक्ति सुविधापूर्वक बिना कहीं गिर पड़ने के किसी भय के बिना चलता-फिरता रहता है-न चारों ओर कोई घाटी है, न कोई खतरा है। तुम अपनी आंखें बंद करके चल सकते हो। तुम्हें रास्ता पता है,