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प्रवचन 93 - मौलिक मन पर लौटना
योग-सूत्र:
(कैवल्यपाद)
तत्र ध्यानजमनाशयम् ।। 611
केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।
कर्माशुल्काकृष्णं योगिनस्तिबिधमितरेषामू।। 7।।
योगी के कर्म न शुद्ध होते हैं, न अशुद्ध, लेकिन अन्य सभी कर्म त्रि-आयामी होते हैं-शुद्ध, अशुद्ध और मिश्रित।
ततस्तद्विपाकानुगुणानामेवाभिव्यक्तिर्बासनानाम्।। 8।।
जब उनकी पूर्णता के लिए परिस्थियां सहायक होती हैं तो इन कर्मों से इच्छाएं उठती हैं।"
जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्।। 9।।
क्योंकि स्मृति और संस्कार समान रूप में ठहरते हैं, इसलिए कारण और प्रभाव का नियम जारी रहता है, भले ही वर्ण, स्थान समय में उनमें अंतर हो।
तासामनादित्वं चाशिषो नित्यत्वात्।। 10//
और इस प्रक्रिया का कोई प्रारंभ नहीं है, जैसे कि जीने की इच्छा शाश्वत होती है।
तत्र ध्यानजमनाशयम्।