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ठीक है, मुल्ला नसरुद्दीन ने उत्तर दिया, बचाव पक्ष के वकील को पता है इसका क्या अर्थ है अभियोजन पक्ष का वकील जानता है कि इसका क्या अर्थ है, और न्यायसभा जानती है कि इसका क्या अर्थ है-और यदि आप भी अपने कैमरा के साथ वहां होते तब आपको भी पता लग जाता कि इसका अर्थ क्या होता है !
इच्छा की अपनी स्वयं की भाषा है, उद्देश्य की अपनी स्वयं की भाषा है, और सभी भाषाएं इच्छा की और उद्देश्य की हैं—विभिन्न इच्छाओं की । मैं तुमसे यह कहना चाहता हूं ईसाइयत एक निश्चित चाह के लिए भाषा है, यह कोई धर्म नहीं है। हिंदू धर्म किसी और चाहत के लिए भाषा है, किंतु यह धर्म नहीं है और अन्य सभी धर्मों के साथ भी ऐसा ही है।
मौलिक मन की कोई भाषा नहीं है। तुम इस तक हिंदू ईसाई, जैन, मुसलमान, बौद्ध होकर नहीं पहुंच सकते। वे सभी इच्छाएं हैं। उनके माध्यम से तुम कुछ उपलब्ध करना चाहते हो। वे तुम्हारे लोभ का प्रक्षेपण हैं।
मौलिक मन तभी जाना जाता है जब तुम सारी चाहतें, सारी भाषाएं, सारे मनों को गिरा देते हो। और अचानक तुम नहीं जानते कि तुम कौन हो धार्मिक व्यक्ति वह है जिसने सोच विचार के किसी भी । ढांचे के साथ अपने सारे तादात्म्य को छोड़ दिया है, और जो वहां बस अकेला, आवरणहीन होकर खडा हो गया है, वह बिना वस्त्रों के, भाषा और मनों के खोल के बिना अस्तित्व से घिरा हुआ है-एक प्याज की भांति जिसको पूरी तरह से छील दिया गया है, हाथों में केवल खालीपन आ गया है।
तत्र ध्यानजमनाशयम्।
'केवल ध्यान से जन्मा मौलिक मन ही इच्छाओं से मुक्त होता है।'
तो मौलिक मन कैसे उपलब्ध हो? अब धर्म की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक को समझना है, मौलिक मन इच्छाओं से मुक्त है और इसको उपलब्ध करने का उपाय है इच्छा-मुक्त हो जाना । तब विचारशील बुद्धि के लिए एक समस्या उठ खड़ी होती है, कौन सी बात प्राथमिक है? क्या हमें इच्छाओं का त्याग करना पड़ेगा? और तब क्या हम मौलिक मन को उपलब्ध कर सकते हैं? लेकिन तब यह समस्या उठती है कि यदि इच्छाएं तभी गिरती है जब मौलिक मन उपलब्ध हो जाता है, तो हम इसकी उपलब्धि से पूर्व ही इच्छाओं का त्याग कैसे कर सकते हैं? या यदि मौलिक मन को उपलब्ध किया ही जाना है तो इच्छाएं स्वतः ही अपने आप से इसके परिणाम स्वरूप गिर जाती हैं। तब तो हमें मौलिक मन उसी समय उपलब्ध कर लेना चाहिए जब इच्छाएं अभी भी अस्तित्व में हों, और मौलिक मन इच्छाओं को छोड़े बिना उपलब्ध नहीं हो सकता, इस प्रकार से एक विरोधाभास उठ खड़ा होता है। लेकिन विरोधाभास इसीलिए है क्योंकि तुम्हारी बुद्धि विभाजित करती है। वास्तव में मौलिक मन और इच्छा-शून्य हो जाना दो बातें नहीं हैं, यह बस एक ही घटना है, जिसकी दो ढंगों से