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कर देते हैं। समस्या बहुत सूक्ष्म है। जब तुम बच्चों को नकल न करना सिखाते हो, वे तुम्हारी कल करना आरंभ कर देते हैं; वे कहते हैं, नकल मत करो! तुम उनको सिखाते हो कि नकल करना गलत है, और निःसंदेह तुम भी वे ही साधन प्रयोग करते हो। यदि वे नकल करते हैं तो उनकी निंदा की जाती है, प्रत्येक उनको नीची दृष्टि से देखता है। यदि वे विद्रोही हो जाते हैं तो उनकी प्रशंसा की जाती है। यह पुरस्कार और दंड की, भ्रम और लोभ की वही रणनीति है वे नकली विद्रोही बन जाते हैं, लेकिन कोई विद्रोही नकलची कैसे हो सकता है?
मन से बचा पाने का कोई उपाय नहीं है, किंतु इससे बाहर आने का उपाय है। इसको समाज में जन्म लेने पर माता-पिता से जन्म लेने पर जन्मी एक आवश्यक बुराई के रूप में स्वीकार करना पड़ता है। यह सहन किए जाने के लिए एक आवश्यक बुराई है। निःसंदेह इसको जितना संभव हो सके उतना शिथिल बना लो, बस इतना ही करो। इसको जितना हो सके उतना तरल बना लो, बस यही पर्याप्त है। अच्छा समाज वह समाज है जो तुमको एक मन देता है, और फिर भी तुमको सजग बनाए रखता है। कि एक दिन इस मन को छोड़ना पड़ता है - यह कोई परम जीवन-मूल्य नहीं है, इससे होकर गुजरना पड़ता है, लेकिन इसके परे भी जाना है। इसका अतिक्रमण करना पड़ता है। मन को देना तो पड़ता है लेकिन मन के साथ तादात्मय बना लेने की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि यह तादात्म शिथिल रहे तो जब लोग परिपक्व हो जाएंगे तो वे इससे अधिक सरलता से कम पीड़ा, कम संतप कम प्रयास से बाहर आने में समर्थ होंगे।
चाहे तुम धनी हो या निर्धन, चाहे तुम गोरे हो या काले, चाहे तुम शिक्षित हो या अशिक्षित, इससे जरा भी अंतर नहीं पड़ता, हम एक ही नाव में सवार हैं; कृत्रिम मन की नाव में। और यही समस्या है। इसलिए तुम निर्धन से धनी हो सकते हो या तुम अपनी संपदा का त्याग कर सकते हो, और भिखारी, बौद्ध भिक्खु, कोई साधु बन सकते हो, लेकिन यह तुमको बदल नहीं देगा। अभी भी तुम उसी नाव में बैठे हुए हो । तुम बस भूमिकाएं बदल रहे होगे, तुम व्यक्तित्वों को बदल रहे होंगे, लेकिन तुम्हारा सार-तत्व पहले की तरह सिमटा हुआ रहेगा।
मैंने सुना है, एक करोड़पति ने एक आवारा के को अपने बाग में चहलकदमी करते हुए देखा, तो वह उस पर चिल्लाया, यहां से इसी समय बाहर निकल जाओ उस आवारा ने कहा महोदय, देखिए आपमें और मुझमें केवल इतना अंतर है कि आप अपने दूसरे करोड़ की तैयारी में हैं और मैं भी पहले करोड़ को पूरा करने के लिए कार्य कर रहा हूं-कोई बहुत अधिक अंतर नहीं है।
निर्धन व्यक्ति, धनी व्यक्ति, शिक्षित, अशिक्षित, सुसंस्कृत, संस्कार - विहीन, सभ्य, आदिम पाश्चात्य, पूर्वी, ईसाई, हिंदू इससे जरा भी अंतर नहीं पड़ता है। मात्रा में अंतर हो सकता है, किंतु गुणवत्ता में नहीं होता। हम सभी मन में हैं, और सारा धर्म इससे पार जाने का एक प्रयास है।
कर्माशुल्काकृष्ण योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ।