________________ प्रवचन 95 - यही है यह योग-सूत्रः (कैवल्यपाद) हेतुफलाश्रयालम्बु संगृहीत्त्वादेषमभावे तदभाकः।। 11 / / प्रभाव के कारण पर अवलंबित होने से, कारणों के मिटते ही प्रभाव तिरोहित हो जाते हैं। अतीतानागतं स्वरूपतोऽख्यध्यभेदादधर्माणाम्।। 12 / / अतीत और भविष्य का अस्तित्व वर्तमान में है, किंतु वर्तमान में उनकी अनुभूति नहीं हो पाती है, क्योंकि वे विभिन्न तलों पर होते हैं। ते व्यक्तसूक्ष्मा गुणात्मानः।। 13 // वे व्यक्त हों या अव्यक्त अतीत, वर्तमान और भविष्य सत, रज और तम गुणों की प्रकृति हैं। परिणामैकत्वाद्वस्तुतत्वम्।। 14// किसी वस्तु का सारतत्व, इन्हीं तीन गुणों के अनुपातों के अनूठेपन में निहित होता है। वस्तुसाम्ये चित्रदात्तयोविभिक्त: पन्थाः।। 15 / / भिन्न-भिन्न मनों के द्वारा एक ही वस्तु विभिन्न ढंगों से देखी जाती है। तदुपरागापेक्षित्याच्चितस्य वस्तु ज्ञाताज्ञातम्।। 17 / / वस्तु का ज्ञान या अज्ञान इस पर निर्भर होता है कि मन उसके रंग में रंगा है या नहीं।