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आया है। यह सारा जीवन दिव्य है, पवित्र है। तुम सदैव पवित्र भूमि पर हो। जहां कहीं भी तुम देखते हो, यह परमात्मा है। जिसको तुम देखते हो, जो कुछ भी तुम करते हो, यह परमात्मा के लिए करते हो। तुम जो कुछ भी हो तुम परमात्मा के लिए भेंट हो। मेरा अभिप्राय यही है, जीवन को जीयो, जीवन का आनंद लो, क्योंकि यही परमात्मा है। और वह तुम्हारे पास आता है और तुम उसका आनंद नहीं ले रहे हो। वह तुम्हारे पास आता है और तम उसका स्वागत नहीं कर रहे हो। वह आता है और उसको तुम उदास, अकेले, अरुचि से भरे हुए और मंदमति के रूप में मिलते हो।
नाचो, क्योंकि हर क्षण वह अनंत ढंगों से, लाखों रास्तों से, हर दिशा से आ रहा है। जब मैं कहता हं जीवन को परिपूर्णता में जीयो, तो मेरा अभिप्राय है, जीवन को इस भांति जीयो जैसे कि यह परमात्मा है। और इसमें प्रत्येक बात समाहित है। जब मैं कहता हं जीवन, तो सभी कुछ समाया हुआ है इसके भीतर। काम सम्मिलित है, प्रेम सम्मिलित है, क्रोध सम्मिलित है, सब कुछ समा गया है। कायर मत बनो। बहादुर बनो और जीवन को इसकी परिपूर्णता में, इसकी पूरी सघनता में स्वीकार कर लो।
अतिम प्रश्न:
कया कोई आपका शिष्य ह
बना आपकी आत्मा से अंतरंग हो सकता है?
यह ऐसा है जैसे कि तुम पूछो, 'क्या कोई आपके साथ अंतरंग हुए बिना आपके साथ अंतरंग हो
सकता है?' शिष्य होना क्या है? शिष्य मात्र एक अभिरुचि, अंतरंग होने की तैयारी मात्र है। शिष्य मात्र एक स्वीकार भाव, स्वीकार करने की, स्वागत करने की तैयारी, है। शिष्य एक मुद्रा है. यदि आप मुझको देते हैं तो मैं उसे अस्वीकार नहीं करूंगा। किंतु तुम शब्दों को लेकर भ्रमित हो। तुमने प्रेम, अंतरंगता में सारी अंतर्दृष्टि खो दी है। यदि तुम शिष्य नहीं हो तो तुम अपनी ओर से अंतरंग नहीं होओगे। मेरी ओर से मैं सभी के प्रति अंतरंग हूं भले ही वे मेरे शिष्य हैं या नहीं। मैं बिना किसी शर्त के अंतरंग हूं।
किंतु यदि तुम शिष्य नहीं हो तो अपनी ओर से तुम बंद हो, इसलिए अकेली मेरी अंतरंगता कार्य नहीं करेगी। यह तुम्हारे साथ जुड़ नहीं सकेगी। तुम एक बाहरी व्यक्ति बने रहोगे। किसी भी तरह से तुम बचाव की अवस्था में रहोगे। निःसंदेह जिसे तुम चाहोगे उसी को तुम चुन लोगे, और जिसको तुम नापसंद करते हो उसे इनकार कर दोगे। शिष्य वह है जो कहता है, ओशो, मैं आपको पूर्णत: स्वीकार करता हं अब आपके साथ मैं कोई चुनाव नहीं करूंगा-बस पूरी हो गई बात। अब मैं अपना मन