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जाता है। यही कारण है कि अकेलापन एक उदास घटना है। तुम अकेले हो, इसका अर्थ है. तुम दूसरे की आवश्यकता अनुभव कर रहे हो। एकांत, जब दूसरे की आवश्यकता तिरोहित हो चुकी है। तुम अपने आप में पर्याप्त हो, अपने आप में परम हो, कोई आवश्यकता नहीं, कोई अभिलाषा नहीं, कहीं जाना नहीं। इसीलिए पतंजलि कहते हैं : तुम घर आ गए हो। उनकी परिभाषा में यही मुक्ति है, उनके लिए यही निर्वाण या मोक्ष है।
तुम पर भी झलकियां आ सकती हैं। यदि तुम शांत बैठ जाओ और स्वयं को अलग कर लो...। पहले स्वयं को वस्तुओं से अलग कर लो। अपनी आंखें बंद कर लो, संसार को भूल जाओ, यदि उसका अस्तित्व है भी तो उसे स्वप्न की भांति लो। फिर अपने विचारों को देखो और स्मरण रखो कि तम विचार नहीं हो, वे तैरते हुए बादल हैं। अपने आप को उनसे अलग कर लो. वे खो चुके हैं। फिर एक विचार उठता है कि तुम अलग हो। यह पश्यंती है। उसे भी गिरा दो, क्योंकि वरना तुम वहीं अटक जाओगे। उसे 'भी गिरा दो, इस विचार के भी बस साक्षी हो रहो। अचानक तुम्हारी शून्यता का विस्फोट हो जाएगा। यह मात्र एक क्षणांश के लिए हो सकता है लेकिन तुम्हारे पास ताओ का, योग और तंत्र का स्वाद होगा, तुम्हारे पास सत्य का स्वाद होगा। और एक बार यह तुम्हें मिल जाए तो इस तक पहुंचना सरलतर और सरलतर हो जाता है। इसे होने दो, इसके प्रति खुले रहो, इसके लिए उपलब्ध रहो। प्रतिदिन यह और-और सरलतर हे। जाता है। जितना अधिक तुम इस पथ पर यात्रा करते हो उतना ही पथ अधिक सुस्पष्ट हो जाता
एक दिन तुम भीतर जाते हो और कभी बाहर नहीं लौटते.. .कैवल्यम्। यही है जिसको पतंजलि परम मुक्ति कहते हैं। पूरब में यही लक्ष्य है।
पूरब के लक्ष्य पाश्चात्य लक्ष्यों से कहीं अधिक ऊपर पहुंचते हैं। पश्चिम में स्वर्ग अंतिम बात प्रतीत होती है; पूरब में ऐसा नहीं है। ईसाई,मुसलमान, यहूदी उनके लिए स्वर्ग अंतिम बात है; इसके परे कुछ भी नहीं है। लेकिन पूरब में हमने और कार्य किया है, हमने सत्य में और गहरी खुदाई की है। हमने उसे परम अंत तक खोदा है, जब तक अचानक खुदाई शून्यता के सम्मुख न पहुंच जाए और अब खोदने के लिए कुछ न रहे।
स्वर्ग एक अभिलाषा है, प्रसन्न रहने की इच्छा है; नरक एक भय है, अप्रसन्न रहने का भय। नरक है संचित संताप, स्वर्ग है हर्ष का संचय। लेकिन वे मुक्ति नहीं हैं। मुक्ति तब है जब तुम न पीड़ा में हो
और न हर्ष में। स्वतंत्रता तभी है जब दवैत गिरा दिया गया हो। स्वाधीनता तभी है जब न तो नरक हो और न स्वर्ग : कैवल्यम्। तब व्यक्ति अपनी परम शुद्धता को उपलब्ध कर लेता है।
पूरब में लक्ष्य रहा है, और मैं सोचता हूं कि इसी को सारी मानवता का लक्ष्य होना चाहिए।