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रखना। जब दुकानदार ने बर्तन को आटे से भर दिया, तो उस मूर्ख ने अलग-अलग रखने के आदेशों को ध्यान में रखते हुए बर्तन को पलट दिया और दुकानदार से नमक को बर्तन के पृष्ठभाग में रखने को कहा। इस प्रकार आटा गिर गया, लेकिन नमक उसके पास था। उसे लेकर वह अपने मालिक के पास पहुंचा, मालिक ने पूछा, किंतु आटा कहां है? तो मूर्ख ने आटा खोजने के लिए बर्तन पुनः पलट दिया, तो नमक भी गिर पड़ा।
आशा और भय के मध्य तुम्हारा सारा अस्तित्व खो गया है।
इसी प्रकार से तुम इतने विखंडित, विभाजित और असंगठित हो गए हो। जरा इसके मूल तथ्य को देखो; यदि तुम्हारे पास कोई आशा नहीं है, तो तुम किसी भी प्रकार का भय निर्मित नहीं कर रहे होओगे - क्योंकि बिना आशा के भय आ ही नहीं सकता। आशा तुम्हारे भीतर भय का सोपान है। आशा भय के प्रवेश के लिए द्वार निर्मित करती है। यदि तुम्हारे पास कोई आशा नहीं है, तो भय की कोई बात न रही। और जब न आशा हो और न भय, तो तुम अपने आप से दूर नहीं जा सकते। जो तुम हो तुम बस वही हो। तुम अभी-यहीं हो। यही क्षण अत्यधिक जीवंत बन जाता है।
दूसरा सूत्र:
जात्यन्तर परिणामः प्रकृत्यापूरात ।
'एक वर्ग, प्रजाति या वर्ण से अन्य में रूपांतरण, प्राकृतिक प्रवृतियों या क्षमताओं के अतिरेक से होता है।
बहुत महत्वपूर्ण ...
यदि तुम तपश्चर्याओं वाले व्यक्ति हो तो तुम कभी भी अतिरेक में नहीं होओगे। तुम अपनी ऊर्जाओं का दमन कर चुके होओगे । कामवासना से भयभीत, क्रोध से भयभीत, प्रेम से भयभीत, इससे और उससे भयभीत तुम अपनी सारी ऊर्जाओं का दमन कर चुके होओगे, तुम अतिरेक में नहीं होओगे। और पतंजलि कहते हैं कि केवल अतिरेक के माध्यम से ही रूपांतरण होता है। यह जीवन के परम आधारभूत नियमों में से एक है।
क्या तुमने गौर किया है कि जब तुम ऊर्जा में कमी अनुभव करते हो, अचानक प्रेम खो जाता है? जब तुम ऊर्जा में कमी अनुभव करते हो, सृजनात्मकता खो जाती है? तुम चित्र नहीं बना सकते, तुम कोई गीत नहीं लिख सकते। यदि तुम लिखते हो तो तुम्हारी कविता चल नहीं पाएगी, नाचना तो बहुत दूर