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केवल यही उपाय है, वरना तुम कैसे प्रेम करोगे। इससे बचने के लिए-जैसे कि स्त्रियां सदा भागती रहती हैं...
त्रैण ऊर्जा भागती है। यही तो खेल है। ऐसा नहीं है वास्तव में कोई स्त्री भाग जाना चाहती है; वह भागने का खेल खेलती है। हूं :....? यदि कोई पुरुष स्त्री से प्रेम-प्रस्ताव करे और वह तुरंत उसके साथ बिस्तर में जाने को तैयार हो जाए, तो पुरुष जरा चिंता करना आरंभ कर देगा। इस स्त्री के साथ क्या गड़बड़ है? क्योंकि खेल तो खेला ही नहीं गया। प्रेम का सौंदर्य प्रेम में इतना अधिक नहीं है जितना कि ग्रम करने से पूर्व खेले जाने वाले खेल, प्राक्-क्रीड़ा में है। तुम अनेक प्रयास करते होंकोर्टशिप, साथ-साथ रहना, घूमना-फिरना, लेकिन कोर्टशिप तभी संभव है जब स्त्री राजी हो। जरा सा गौर करना। जब तुम किसी स्त्री से बात कर रहे हो, यदि तुम उसमें उत्सुक हो, वह पीछे की ओर हट रखो होगी, और तुम आगे बढ़ रहे होओगे। लेकिन सदैव वहां एक दीवाल हुआ करती है, यदि स्त्री दीवाल से विपरीत दिशा में जाती है तो वह पकड़ में आ जाएगी। वह हमेशा दीवाल की ओर बढ़ती है-यह भी चाही हुई बात है। यह सभी कुछ चाहा गया है, यही सारा खेल है, और सुंदर है यह खेल।
इस तरह गाय ने बैल से बचने के लिए भागना आरंभ कर दिया। वह मादा चीता बन गई। तो परमात्मा को चीता बनना पड़ गया। वह शेरनी बन गई-बस भागने के लिए। परमात्मा को शेर बनना पड़ा। और इसी प्रकार से सारा संसार निर्मित हो गया, स्त्री का भागना, पुरुष का पीछे दौड़ना। एक सुंदर कहानी, और बहुत सत्य।
इसी प्रकार से सारा संसार सृजित हुआ है : एक ऊर्जा भागती हुई, दूसरी उसके पीछे दौडती हुई। लकाछिपी का खेल-और स्त्री छिपती है, और छिप जाती है और छिपती रहती है और इसका सौंदर्य-और परमात्मा उसे बार-बार खोज लेता है-नये रूपों में, नये पुष्पों में, नये पक्षियों में, नये पशुओं में। और खेल चलता चला जाता है.....यह लीला अनंत है। हिंदू कहते हैं कि परमात्मा की लीला का कोई अंत नहीं है।
किंतु सारा खेल कामुक है। यह खेल जैसा है, कामुक है क्योंकि यह कार्य नहीं है। तुम खेल को इसी के लिए खेलते हो। यही कारण है कि हिंदुओं की परमात्मा की अवधारणा, ईसाइयों और मुसलमानों और यहूदियों की परमात्मा की अवधारणाओं से कहीं श्रेष्ठ है। यहूदी ईश्वर किसी श्रमिक, करीब-करीब कामगार, एक शूद्र जैसा दिखाई पड़ता है। हिंदू ईश्वर कार्य की चिंता नहीं करता है, वह किसी श्रमिक संघ से संबंधित नहीं है। वह खिलाड़ी है, अभिनेता है। सारा संसार उसका खेल है। वह इससे आनंदित होता है, और इसका कोई अंत नहीं है। अपने आप में यही साध्य है, यह कोई साधन नहीं है।
हा
कार्य और खेल में यही अंतर है, कार्य सदैव लक्ष्य उन्मुख होता है। अपने आप में यह व्यर्थ है, इसीलिए तुम इसे न करना चाहोगे। तुम आफिस जाते हो, फैक्ट्री में, दुकान में जाते हो और सारा दिन तुम कार्य करते हो, क्योंकि जो कुछ तुम चाहते हो-कार, अच्छा मकान, एक सुंदर स्त्री-सिर्फ तभी