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वटवृक्ष एक बड़ा वृक्ष है। पिता ने एक फल लाने को कहा, श्वेतकेतु उसे लेकर आया। फल वैखरी हैवह चीज पुष्पित हो चुकी है, फल लग गए। फल सर्वाधिक परिधिगत घटना है, मूर्तमान होने की पराकाष्ठा । पिता कहता है, इसे तोड़ो श्वेतकेतु उसे तोड़ता है-लाखों बीज हैं उसके भीतर पिता कहते हैं, एक बीज चुन लो, इसे भी तोड़ो। वह उस बीज को भी तोड़ता है। अब हाथ में कुछ न रहा। अब बीज के भीतर कुछ भी नहीं है। उद्दालक ने कहा इस शून्यता से बीज आता है, इस बीज से वृक्ष का जन्म होता है, वृक्ष में फल लगते हैं। लेकिन आधार है-शून्यता, मौन, आकाश, अमूर्त, निराकार, पार, वह जो सबसे परे है।
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वैखरी की अवस्था में तुम बहुत अधिक संशयग्रस्त होते हो, क्योंकि तुम अपने अस्तित्व से सर्वाधिक दूर हो। यदि तुम अपने अस्तित्व में थोड़ा गहरे उतरो जब तुम 'मध्यमा' के तीसरे बिंदु के निकट आते हो तब तुम अपने अस्तित्व के और समीप आ जाते हो। यही कारण है कि इसे मध्यम, सेतु का जाता है। इसी प्रकार से एक ध्यानी अपने अस्तित्व में प्रवेश करता है। इसी प्रकार से मंत्र का प्रयोग किया जाता है
जब तुम किसी मंत्र का प्रयोग करते हो और तुम उसे लयपूर्वक दोहराते हो- ओम ओम ओम.. पहले इसे जोर से दोहराना है वैखरी। फिर तुमको अपने ओंठ बंद करना पड़ते हैं और अंदर इसे दोहराना होता है-ओम ओम ओम... कोई ध्वनि बाहर नहीं आती मध्यमा। फिर तुम्हें भीतर दोहराना भी छोड़ देना पड़ता है दोहराना स्वतः होता है; इसके साथ तुम इस भांति लयबद्ध हो जाते हो कि जब तुम इसे दोहराना छोड़ देते हो और यह अपने आप से ही जारी रहता है-ओम ओम ओम... अब इसको दोहराने के स्थान पर तुम श्रोता बन जाते हो, तुम सुन सकते हो, निरीक्षण कर सकते हो और देख सकते हो : यह पश्यंती बन गया है। पश्यंती का अर्थ है. पीछे लौट कर स्रोत को देखना। अब तुम्हारी आंखें स्रोत की ओर घूम गई हैं तब धीरे- धीरे यह ओम भी निराकार में विलीन हो जाता है अचानक वहां शून्यता होती है और कुछ भी नहीं होता। तुम ओम ओम ओम... नहीं सुनते; तुम कुछ भी नहीं सुनते। न तो वहां सुनने के लिए कुछ होता है, न ही सुनने वाला होता है। सभी कुछ तिरोहित चुका है।)
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'तत्वमसि श्वेतकेतु!' उद्दालक ने अपने पुत्र से कहा, तुम वही हो। वही शून्यता, जहां मंत्रोच्चारक और मंत्रोच्चार दोनों विलीन हो चुका है।
अब यदि तुम वस्तुओं से अत्याधिक आसक्त हो, तो तुम वैखरी की दशा में रहोगे। यदि तुम अपने शरीर से अत्याधिक आसक्त हो, तो तुम मध्यमा की दशा में रहोगे । यदि तुम अपने मन से अत्याधिक आसक्त हो, तुम पश्यंती की अवस्था में रहोगे और यदि तुम जरा भी आसक्त नहीं हो, तो अचानक तुम परा में, जो परे है, जो सबके पार है, उसमें विलीन हो जाते हो। यही मुक्ति है।