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क्रमागत समय के साथ विशेषज्ञों का संसार अस्तित्व में आया, क्योंकि तुमने वास्तविकता में लगी अपनी जड़ों को विस्मृत कर दिया है। प्रत्येक बात के लिए तुम्हें किसी और से पूछना पड़ता है। लोग मेरे पास आते हैं और वे कहते हैं, 'ओशो, कृपया हमें बताइए कि हमें कैसा लग रहा है?' तुम्हें कैसा लग रहा है, तुम्हें पता होना चाहिए। लेकिन मैं समझता हूं। वास्तविकता के साथ स्पर्श, संपर्क, संबद्धता खो चुकी है। यहां तक कि तुम्हें कैसा लग रहा है, तुम्हें उसे जानने के लिए भी किसी के पास पूछने जाना पड़ता है, जिसे पता है तुम्हें किसी और पर भरोसा करना पड़ता है। यह दुर्भाग्य है, लेकिन यह धीमे चरणों में घटा है और मानव-जाति इसके प्रति जागरूक नहीं रही है।
क्रमागत समय अब प्रयोग नहीं किया जा रहा है। अब यह कोई साधन भर न रहा, यह करीब-करीब साध्य हो गया है। याद रखो, यह नकली समय है। इसका वास्तविकता से जरा भी लेना-देना नहीं है। इससे गहराई में, बस इसके नीचे ही, एक और समय है, यह भी यथार्थ नहीं है, लेकिन क्रमागत समय से अधिक वास्तविक है; वह है मनोवैज्ञानिक समय। तुम्हारे भीतर एक घड़ी है, जैविक घड़ी। पुरुषों से अधिक स्त्रियां इसके प्रति संवेदी होती हैं। बहुत लंबे समय तक वे भी संवेदी नहीं रह पाएंगी क्योंकि वे हर भांति से पुरुषों की नकल करने की कोशिश में लगी हुई हैं। अभी भी उनका शरीर भीतरी घड़ी के अनुरूप कार्य करता है। प्रत्येक अट्ठाइस दिन बाद उन्हें मासिक धर्म होता है। शरीर भीतरी घड़ी की तरह, जैविक घड़ी के रूप में कार्य करता है।
यदि तुम निरीक्षण करो, तो तुम देखोगे कि प्रतिदिन एक निश्चित समय पर भूख लगती है। यदि तुम ठीक-ठाक और स्वस्थ हो, तब आवश्यकताएं एक निश्चित क्रमबद्धता ग्रहण कर लेती हैं, और वही क्रम पुनरुक्त होता रहता है। यह केवल तभी भंग होता है, जब तुम स्वस्थ न हो, अन्यथा शरीर सुचारु रूप से, एक सरल ढंग से संचालित होता रहता है। और यदि तुम्हें उस प्रारूप की जानकारी है, तो तुम उस व्यक्ति की तुलना में अधिक जीवंत होओगे जो घड़ी के अनुसार जीता है। तुम सत्य के अधिक निकट हो।
क्रमागत समय निश्चित होता है, इसे निश्चित होना ही पड़ेगा, क्योंकि यह सामाजिक अनिवार्यता है; लेकिन मनोवैज्ञानिक समय तरल है, यह उतना ठोस नहीं है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का अपना निजी मानसिक ढंग, अपना निजी मन होता है। क्या तुमने कभी देखा है? जब तुम प्रसन्न होते हो, तो समय तेज चलता है। तुम्हारी घड़ी तेज नहीं चलेगी, घडी को तुमसे कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह अपने हिसाब से चलती है-साठ सेकेंड में वह एक मिनट चलती है, साठ मिनट में वह एक घंटा चलती है। वह चलती रहेगी, भले ही तुम प्रसन्न हो या अप्रसन्न हो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यदि तुम अप्रसन्न हो तुम्हारा मन एक अलग समय में होगा, यदि तुम प्रसन्न हो तो तुम्हारा मन एक अलग समय में होगा। यदि अचानक तुम्हारा प्रियपात्र आता है, अप्रत्याशित रूप से द्वार पर दस्तक देता है, तो समय करीब-करीब रुक जाता है। घंटों बीत जाएंगे-तुम भले ही कुछ न कर रहे हो, बस हाथ पकड़े हुए हो, बैठे हुए हो, और चंद्रमा को देख रहे हो-घटों बीत जाएंगे, और ऐसा प्रतीत होगा कि कुछ