Book Title: Panchastikay
Author(s): Kundkundacharya, Shreelal Jain Vyakaranshastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन प्रत्येकमूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपेण परिणमनाल्लोकपूरणावस्थाव्यवस्थितव्यक्तस्सदा सन्निहितशक्तेस्तदनुमीयत एव । पुद्गलानामप्यूर्वाधोमध्यलोकविभागरूपपरिणतमहास्कन्धत्वप्राप्तिव्यक्तिशक्तियोगित्वानवाविधा सावयवत्वसिद्धिरस्त्येवेति ॥५॥
. हिन्दी समय व्याख्या गाथा-५ अन्वयार्थ---[ येषाम् ] जिन्हें [ विविधैः ] विविध ( गुणैः ) गुणों और ( पर्ययैः ) पर्यायों के ( सह ) साथ [स्वभाव: ] अपनत्व ( अस्ति ) है ( ते ) वे ( अस्तिकायाः भवन्ति ) अस्तिकाय हैं [यैः ] कि जिनसे ( त्रैलोक्यम् ) तीनों लोक ( निष्पत्रम् ) हैं। ___टीका-यहाँ, ( इस गाथाद्वारा ) पाँच अस्तिकायोंको अस्तित्व किसप्रकार है और कायत्व किस प्रकार है वह कहा गया है। ___वास्तवमें अस्तिकायोंको विविध गुणों और पर्यायोंके साथ स्वपना-अपनापन-अनन्यपना है। वस्तुके व्यतिरेकी विशेष वे पर्यायें है और अनवयी विशेष वे गुण हैं । इसलिये एक पर्यायसे प्रलयको प्राप्त होनेवाली, अन्य पर्यायसे उत्पन्न होनेवाली और अन्वयी गुणसे ध्रुव रहनेवाली एक ही वस्तुको व्ययउत्पाद-ध्रौव्य लक्षण अस्तित्व घटित होता ही है। और यदि गुणों तथा पर्यायों के साथ ( वस्तुमें) सर्वथा अन्यत्व हो तब तो अन्य कोई विनाशको प्राप्त होगा, अन्य कोई प्रादुर्भावको ( उत्पादको ) प्राप्त होगा और कोई अन्य ध्रुव रहेगा-इस प्रकार सब विप्लव को प्राप्त हो जायगा । इसलिये ( पांच अस्तिकायोंको) अस्तित्व किसप्रकार है तत्सम्बन्धी यह ( उपर्युक्त ) कथन सत्य-योग्य-न्याययुक्त है।
अब, ( उन्हें ) कायत्व किसप्रकार है उसका उपदेश किया जाता है:-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश यह पदार्थ अवयवी हैं उनके प्रदेश नामके जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होनेसे पर्यायें कहलाते हैं । उनके साथ उन ( पाच ) पदार्थोको अनन्यपना होने से कायवसिद्धि घटित होती है। परमाणु ( व्यक्ति अपेक्षा ) निरवयव होने पर भी उनको सावयवपनेकी शक्ति सद्भाव होनेसे कायवसिद्धि निरपवाद है । वहाँ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है कि पुद्गलके अतिरिक्त अन्य पदार्थ अमूर्तपनेके कारण अविभाज्य होनेसे उनके सावयवपनेकी कल्पना न्यायविरुद्ध ( अनुचित ) है । आकाश अविभाज्य होने पर भी उसमें 'यह घटाकाश है, यह अघटाकाश ( पटाकाश ) है'— ऐसी विभागकल्पना दृष्टिगोचर होती ही है । यदि वहाँ ( कथंचित् ) विभागकी कल्पना न की जाये तो जो घटाकाश है वही ( सर्वथा ) अघटाकाश हो जायेगा, और वह तो इष्ट ( मान्य ) नहीं है। इसलिये कालाणुओंके अतिरिक्त अन्य सर्वमें कायत्वनामका सावयवपना निश्चित करना चाहिये।
उनकी जो तीनलोकरूप निष्पन्नता ( रचना ) कही, वह भी उनका अस्तिकायपना ( अस्तिपना तथा कायपना ) सिद्ध करनेके साधनरूपसे कही है। वह इस प्रकार है