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26 The existence of the six substances and the five astikayas, as described in the form of the division of the three worlds (upper, lower, and middle), is inferred from the fact that they are always present in the state of filling the worlds, due to their inherent power. Similarly, the existence of the pudgalas, which have attained the form of the great skandhas, due to their transformation in the form of the division of the three worlds, is also established by the fact that they are capable of being combined with individual powers, and thus have nine types of parts. ||5||
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________________ २६ षद्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन प्रत्येकमूर्ध्वाधोमध्यलोकविभागरूपेण परिणमनाल्लोकपूरणावस्थाव्यवस्थितव्यक्तस्सदा सन्निहितशक्तेस्तदनुमीयत एव । पुद्गलानामप्यूर्वाधोमध्यलोकविभागरूपपरिणतमहास्कन्धत्वप्राप्तिव्यक्तिशक्तियोगित्वानवाविधा सावयवत्वसिद्धिरस्त्येवेति ॥५॥ . हिन्दी समय व्याख्या गाथा-५ अन्वयार्थ---[ येषाम् ] जिन्हें [ विविधैः ] विविध ( गुणैः ) गुणों और ( पर्ययैः ) पर्यायों के ( सह ) साथ [स्वभाव: ] अपनत्व ( अस्ति ) है ( ते ) वे ( अस्तिकायाः भवन्ति ) अस्तिकाय हैं [यैः ] कि जिनसे ( त्रैलोक्यम् ) तीनों लोक ( निष्पत्रम् ) हैं। ___टीका-यहाँ, ( इस गाथाद्वारा ) पाँच अस्तिकायोंको अस्तित्व किसप्रकार है और कायत्व किस प्रकार है वह कहा गया है। ___वास्तवमें अस्तिकायोंको विविध गुणों और पर्यायोंके साथ स्वपना-अपनापन-अनन्यपना है। वस्तुके व्यतिरेकी विशेष वे पर्यायें है और अनवयी विशेष वे गुण हैं । इसलिये एक पर्यायसे प्रलयको प्राप्त होनेवाली, अन्य पर्यायसे उत्पन्न होनेवाली और अन्वयी गुणसे ध्रुव रहनेवाली एक ही वस्तुको व्ययउत्पाद-ध्रौव्य लक्षण अस्तित्व घटित होता ही है। और यदि गुणों तथा पर्यायों के साथ ( वस्तुमें) सर्वथा अन्यत्व हो तब तो अन्य कोई विनाशको प्राप्त होगा, अन्य कोई प्रादुर्भावको ( उत्पादको ) प्राप्त होगा और कोई अन्य ध्रुव रहेगा-इस प्रकार सब विप्लव को प्राप्त हो जायगा । इसलिये ( पांच अस्तिकायोंको) अस्तित्व किसप्रकार है तत्सम्बन्धी यह ( उपर्युक्त ) कथन सत्य-योग्य-न्याययुक्त है। अब, ( उन्हें ) कायत्व किसप्रकार है उसका उपदेश किया जाता है:-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश यह पदार्थ अवयवी हैं उनके प्रदेश नामके जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होनेसे पर्यायें कहलाते हैं । उनके साथ उन ( पाच ) पदार्थोको अनन्यपना होने से कायवसिद्धि घटित होती है। परमाणु ( व्यक्ति अपेक्षा ) निरवयव होने पर भी उनको सावयवपनेकी शक्ति सद्भाव होनेसे कायवसिद्धि निरपवाद है । वहाँ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है कि पुद्गलके अतिरिक्त अन्य पदार्थ अमूर्तपनेके कारण अविभाज्य होनेसे उनके सावयवपनेकी कल्पना न्यायविरुद्ध ( अनुचित ) है । आकाश अविभाज्य होने पर भी उसमें 'यह घटाकाश है, यह अघटाकाश ( पटाकाश ) है'— ऐसी विभागकल्पना दृष्टिगोचर होती ही है । यदि वहाँ ( कथंचित् ) विभागकी कल्पना न की जाये तो जो घटाकाश है वही ( सर्वथा ) अघटाकाश हो जायेगा, और वह तो इष्ट ( मान्य ) नहीं है। इसलिये कालाणुओंके अतिरिक्त अन्य सर्वमें कायत्वनामका सावयवपना निश्चित करना चाहिये। उनकी जो तीनलोकरूप निष्पन्नता ( रचना ) कही, वह भी उनका अस्तिकायपना ( अस्तिपना तथा कायपना ) सिद्ध करनेके साधनरूपसे कही है। वह इस प्रकार है
SR No.090326
Book TitlePanchastikay
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreelal Jain Vyakaranshastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages421
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size11 MB
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