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करुणा के अमर देवता १६ दृश्य को देखकर विस्मय में डूब गये । रेसीडेन्ट के चले जाने के बाद कर्मचारी बोलेहम आपको समझ नहीं पाए कि-आप इतने बड़े महात्मा हैं ? हमें क्षमा करें।
गुरु नन्द का स्वर्गारोहण संपत्ती विणीयस्स य।"
-द०६।२।२२ विनीत सम्पत्ति का पात्र कहा है। तदनुसार दादा गुरुदेव श्री नन्दलाल जी महाराज के कृपा पात्र शिष्य-प्रशिष्यों में से चरित्रनायक श्री जी का स्थान अग्रगण्य था। आपके जीवन विकास में दादा गुरुजी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। "आणातवो आणाइ संजमो तह य दाणमाणाए" (संबोध सत्तरि) अर्थात् --आज्ञा में तप है, आज्ञा में संयम है और आज्ञा में ही दान-मान है । जो गुरुजनों की आज्ञाओं का यथोचित पालन करता है, उनके निकट सम्पर्क में रहता है एवं उनके हर संकेत चेष्टाओं को कार्यान्वित करने में तत्पर है, वह सत्पात्र विनीत शिष्य कहलाता है। दादा गुरु जी की सेवा के लिए जब-जब चरित्रनायक श्री को याद किया तब-तब आपने अपना अहोभाग्य समझा।
और गुरु सेवा को प्रमुखता देकर अति शीघ्र काफी लम्बी सफर तय करते हुए सेवा में पहुंचे।
यह बात सं० १९९३ रतलाम वर्षावास की है। उन दिनों धर्मदास मित्र मण्डल में तपोधनी श्री भगवानदास जी महाराज विराज रहे थे। पहले व्याख्यान तपस्वी महाराज फरमाते थे, तत्पश्चात् चरित्रनायक श्री जी रोचक शैली में विविध आगमिक अनुभूतियाँ एवं लौकिक दृष्टान्तों सहित फरमाते थे। व्याख्यानों में अनोखा आकर्षण था, श्रोताओं की उपस्थिति उत्तरोत्तर वृद्धि पर थी। धार्मिक अनुष्ठानों की नर-नारियों में प्रतिस्पर्धा लगी हुई थी। इस प्रकार चतुर्विध संघ में शांत-स्वच्छ वातावरण परिव्याप्त था।
__ सावन शुक्ला तीज के दिन दादा गुरुजी श्री नन्दलालजी महाराज संतों को शास्त्राभ्यास करवा कर शौचादिकार्यों से निवृत्त होकर पधारे। कुछ ही क्षण बीते होंगे कि आप श्री का जी मचलने लगा, घबराहट बढ़ने लगी। तत्क्षण आप जान गये कि-अब यह शरीर धोखा देने वाला है, इस शरीर की अवधि पूरी होने जा रही है। ऐसे समय में इस आगम-वाणी को नहीं भूलना चाहिए। "लाभंतरे जीविय बहइत्ता, पच्छा परिण्णाय मलावधंसी।"
-उत्त०४७ रत्नत्रयादि का जब तक लाभ हो, तब तक जीवन की वृद्धि करें। बाद में समाधिपूर्वक शरीर का परित्याग करें।
जीवियं नाभिकंखिज्जा, मरणं नोवि पत्थए । दुहओ वि न सज्जेज्जा, जीविए मरणे तहा ।
-आचारांग सूत्र शा८४
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