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६६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
कई बार आपके मुखारविंद से उक्त उद्गार निःसृत हुए एवं सुनने को भी मिले हैं । भगवान महावीर के शब्दों में
करणसच्चे वट्टमाणे जीवे जहावाई तहाकारी यावि भवइ ।
(उत्तराध्ययन २६५१) .. करण सत्य-व्यवहार में स्पष्ट तथा सच्चा रहने वाला आत्मा "जैसी कथनी, वैसी करनी" का आदर्श प्राप्त करता है । ऐसी सरल और ऋजु आत्माओं की विशुद्धि होती है, और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है। जैसा कि भगवान महावीर ने कहा है
_ 'सोही उज्जुअ भूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई।' स्वाध्याय और सिद्धान्त के श्रुतधर
जैन द्वादशांगी वाङमय पर आपकी पूर्ण श्रद्धा और निष्ठा रही है । अहिंसाअनेकांत-अपरिग्रह सिद्धान्तों पर आपको भारी स्वाभिमान है। शास्त्र-स्वाध्याय में भी आप आगे हैं। कई बार मैंने देखा है-आप रात्रि के चतुर्थ प्रहर में नियमित रूप से बड़ी तन्मयतापूर्वक स्वाध्याय-चिंतन-मनन और मंथन में लगे रहते हैं। चातुर्मास में भी आप अधिकाधिक आगमों का अनुशीलन-परिशीलन करने में तत्पर रहते हैं। अवकाशानुसार आज भी आगम-वाचना का क्रम चालू रहता है। शास्त्रीय भाषा में आप फरमाया करते हैं- "सुयस्स आराहणयाए णं अन्नाणं खवेई। (उ० २६।५९) श्रुत की आराधना करने से अज्ञान के पर्दे दूर हटते हैं और समस्त दुखों से मुक्ति मिलती है । जैसे—“सज्झाए वा निउत्तेण सव्व दुक्ख विमोक्खणे।" (उ० २६।१०) प्रत्येक बुद्धिजीवी आसानीपूर्वक स्वाध्याय तपाराधना करके अपने आपको समुज्ज्वल बना सकता है।
"ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय" अर्थात् महामनस्वियों को प्राप्त हुई सम्पत्ति का सदुपयोग ज्ञान के लिए, दान के लिए और स्व-पर रक्षा के लिए होता है। कितना महान् सिद्धान्त ? हमारे चरित्रनायक जी का व्यक्तित्व सदैव विराट रहा है। कोई भी मुमुक्षु अध्ययन के लिए आपके सानिध्य में पहुँचता है तो उदारतापूर्वक आप उसे ज्ञान-दान देने में तत्पर रहते हैं।
इसी भावना को साकार करने के लिए चरित्रनायक जी का अपने शिष्य परिवार के साथ बंगाल, बिहार, उत्तर-प्रदेश, मध्य-प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल-प्रदेश, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, आन्ध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिल प्रदेश, केरल एवं उड़ीसा आदि प्रांतों में धर्म-प्रचार-प्रसारार्थ काफी परिभ्रमण रहा । अहिंसा, अनेकांत एवं अपरिग्रह सिद्धान्तों का जन-जन में प्रचार हो, इस भावना को प्रमुखता देकर आपने हजारों मील की पैदल यात्रा तय की। रंक से राजा पर्यन्त हजारों-लाखों भारतीय आपके सम्पर्क में आये, धर्मोपदेशों से लाभान्वित हुए एवं सैकड़ों-हजारों मानवों ने मदिरा-मांस का परित्याग भी किया।
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