________________
३९८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
अट्ठकवि (१३०० ई.) का अटुमत नामक ज्योतिष ग्रन्थ है । इसमें वर्षा, आकस्मिक लक्षण, वायु, गृह प्रवेश, भूकम्प, विद्य त, इन्द्रधनुष, ध्वनि, मेघादि के निमित्तों से फलादेश दिया गया है।
महेन्द्रसूरि (१२६२ शक) द्वारा यन्त्रराज रचित हआ। इसमें नाड़ीवृत्त के धरातल में गोल पृष्ठ पर खींचे गये सभी वृत्तों का परिणमन कर ग्रहगणित किया गया है। इसकी टीका मलयेन्दु सूरि द्वारा रचित हुई। इसमें परमाक्रांति २३ अंश ३५ कला मानी गई है। इसमें पाँच अध्याय हैं जिनमें विभिन्न ग्रह गणितों का साधन किया गया है। इसमें पंचांग निर्माण करने की विधि भी दी गयी है।
सम्भवतः इसी युग की ८वी हवीं शती के बाद की एक रचना भद्रबाहु संहिता है जिसमें अष्टांग निमित्त का वर्णन हैं। इसमें २७ अध्यायों में निमित्त तथा संहिता के विषय है और ३०वें अध्याय में अरिष्टों का विवरण है। लोकोपयोग को ध्यान में रखते हए इसकी रचना हुई । यह सांख्यिकी की आधुनिक प्रणाली का द्योतक है।
समन्तभद्र (१३वीं शती) की रचना केवलज्ञान प्रश्न चूड़ामणि है। इसमें अक्षरों को पाँच वर्गों में विभाजित कर प्रश्नकर्ता के वाक्य के आधार पर प्रश्नों के फलाफल का विचार किया गया है।
हेमप्रभ (सम्बत् १३०४) प्रायः चौदहवीं शती के प्रथम चरण में इन्होंने दो ग्रन्थ-त्रैलोक्य प्रकाश तथा मेघमाला रचे । त्रैलोक्यप्रकाश फलित ज्योतिष का ११६० श्लोक वाला ग्रन्थ है । मेघ माला में श्लोक संख्या १०० है । (प्रो० एच० डी० बेलकर-जैन ग्रन्थावली, पृ० ३५६)
रत्नशेखर (१५वीं शती) द्वारा १४४ गाथाओं वाला दिनशुद्धिदीपिका रचित हुआ। यह व्यवहार की दृष्टि से लिखा गया ग्रन्थ है।
टक्करफेरु (१४वीं शताब्दी) के दो ग्रन्थ गणितसार और जोइससार हैं ।
इस युग के अन्य ज्योतिषयों में हर्षकीति (जन्मपत्र पद्धति), जिनवल्लभ (स्वप्न संहितका) जय विजय (शकुन दीपिका), पुण्यतिलक (ग्रहायु साधन), गर्गमुनि (पासावली), समुद्र कवि (सामुद्रिकशास्त्र), मानसागर (मानसागरी पद्धति), जिनसेन (निमित्तदीपक) आदि उल्लेखनीय हैं । अनेक ज्योतिष ग्रन्थों के कर्ताओं का पता नहीं चलता है ।
१७०१ ई० से १६७६ ई. तक अर्वाचीन काल माना जा सकता है। इस युग के प्रमुख ज्योतिषी मेघविजयगणि (प्रायः वि० सं० १७३७) हैं। इनके मुख्य ग्रन्थ मेघ महोदय या वर्ष प्रबोध, उदय दीपिका, रमलशास्त्र और हस्त संजीवन हैं। वर्ष प्रबोध से ज्योतिष विषय की जानकारी मिलती है । हस्त संजीवन सामुद्रिकशास्त्र की महत्वपूर्ण कृति है।
इनके अतिरिक्त उभयकुशल (१८वीं शती पूर्वार्द्ध) के फलित ज्योतिष सम्बन्धी विवाह पटल और चमत्कार चिन्तामणि; लब्धचन्द्रगणि (वि० सं० १७५१) का व्यवहार ज्योतिष सम्बन्धी जन्मपत्री पद्धति; बाघती मुनि (वि० सं० १७८३) के तिथि सारणी ग्रन्थ आदि; यशस्वतसागर (वि०सं० १७६२) के व्यवहारोपयोगी यशोराजपद्धति उल्लेखनीय हैं।
उपरोक्त के अतिरिक्त विनयकुशल, हीरकुशल, मेघराज, जिनपाल, जयरत्न, सूरचन्द्र आदि अनेक ज्योतिषियों की रचनाएँ उपलब्ध हैं । अभी तक प्रायः ५०० जैन ज्योतिष ग्रन्थों का पता चला है। (वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० ४७८-४८४)
आशा है कि २५००वा वीर निर्वाण महोत्सव के उपलक्ष्य में आयोजित समितियाँ जैन विद्या के केन्द्रों पर ज्योतिष एवं गणित की शोधों को प्रोत्साहित करने हेतु उपयुक्त प्राध्यापकों की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org