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१२८ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
अर्थात्-आत्म-कल्याणार्थी मानव विषय-वासनाओं के परिसेवन से उत्पन्न दुःखों से दुखित तथा घबराये हुए प्राणियों को देखकर अथवा अपने मन में इसके कारणों की मीमांसा करके सदा अप्रमत्त होता हुआ अपना जीवन व्यवहार चलावे। भावदृष्टि से जागरूक होता हुआ संयम की आराधना में तत्पर रहे।
प्रवर्तकजी महाराज साहब भगवान् महावीर के उपरोक्त सूत्र-वाक्य को अपने जीवन में पूर्णतया आत्मसात किये हुए हैं ।
आपका जन्म विक्रम संवत् १९६४ पोष शुक्ला एकम शनिवार को मंदसौर में हुआ। यह वही प्राचीन भूमि है जहाँ दशार्णभद्र जैसे महान् राजा ने दीक्षा लेकर स्वसम्मान को कायम रक्खा जिससे देवों के देव-इन्द्र (शकेन्द्र) ने भी हार मान कर मानव को ही उत्कृष्ट बतलाया। प्रवर्तकजी महाराज ने केवल इस शहर में जन्म ही नहीं लिया वरन् राजा दशार्णभद्र की परम्परा को भी कायम रखा । आपके पिता श्री लक्ष्मीचन्दजी दुग्गड़ एवं माता श्रीमती हगामबाई थीं। माता-पिता दोनों ही सुसंस्कारी एवं धर्मपरायण थे । इनके सद्गुणों का आपश्री के जीवन पर अच्छा प्रभाव पड़ा।
श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने श्रीमद्-आचारांगसूत्र के द्वितीय अध्ययन में फरमाया है कि
इच्चेऐहिं विरूवरूवेहि पण्णाणेहिं अपरिहायमाणेहिं
आयट्ठ सम्म समणुवासिज्ज्जासि ।। अर्थात्-संयोग से प्राप्त होने वाली भौतिक वस्तुओं में निरन्तर ह्रास होता ही रहता है। इस पौद्गलिक नियम के अनुसार कर्मोदय से प्राप्त इन्द्रियों की शक्तियां शनैः-शनैः घटती ही रहती हैं । इसलिये यदि तू आत्म-कल्याण का इच्छुक है तो जब तक नाना प्रकार की ज्ञानशक्ति से ये इन्द्रियां क्षीण न होवें--अशक्त तथा संज्ञाशून्य न हो जावें, उसके पूर्व ही आत्मा के हितार्थ "ज्ञान-चारित्र के विकासार्थ" सम्यक् प्रकार से तू पराक्रम कर, प्रयत्न कर और उद्यम में रत रह ।
प्रवर्तक श्री जी ने उपरोक्त तथ्य को शीघ्र ही समझ लिया। सांसारिक नश्वरता से परिचित होकर आपने संयम धारण कर ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करने का , निश्चय कर लिया। सांसारिक प्रपंचों से मुक्त होकर आपने वि० सं० १९७६ माघ शुक्ला तीज शनिवार को रामपुरा में भागवती दीक्षा अंगीकार कर ली। आप सेवाभावी श्री लक्ष्मीचन्दजी महाराज के शिष्य हुए।
संयम लेकर आपने अपना चित्त शास्त्राभ्यास में लगाया। आपने आगमों का गहन अध्ययन किया, इसी कारण आप 'जैनागमतत्त्वविशारद' के नाम से प्रसिद्ध हुए। आपका लक्ष्य साहित्य की ओर गया तब आपने हीरक-सहस्रावली आदि पुस्तकों का संग्रह कार्य किया। आप व्याख्यान मधुर एवं शान्त भाषा में फरमाते हैं। आपके व्याख्यान दस भागों में प्रकाशित हुए हैं। जो 'हीरक-प्रवचन' के नाम से प्रकाशित हुए
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