Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

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Page 411
________________ ३७६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ सुशोभित होते हुए आप एक प्रकार के असली आध्यात्मिक जवाहर के रूप में निखरे । सभी साधु साध्वी आपको गुरुजी के नाम से पुकारते थे। आपका वि० सं० १९७२ का वर्षावास मंदसौर था। शरीर में व्याधि का फैलाव अधिक होने के कारण आपने संथारा स्वीकार किया। उधर मंदसौर निवासी जीतमल जी लोढा को स्वप्न दर्शन हुआ कि- "गुरुजी जवाहरलाल जी म. का कार्तिक शुक्ला ६ के दिन १२ बजकर १५ मिनिट पर स्वर्गवास होगा और तीसरे देवलोक में जायेंगे।" वह दिन आया। प्रातःकाल श्री छोटे मन्नालाल जी म० ने गुरुजी से पूछा---"भगवन् ! कुछ ज्ञान का आभास हुआ है ?" "हाँ मुने ! 'क्षयोपशम परमाणे' अर्थात् कुछ अंश मात्रा में अवधिज्ञान का आभास हुआ है।" तत्पश्चात् उनकी रसना रुक गई। बस, लोढाजी के स्वप्नानुसार उसी समय आपश्री का स्वर्गवास हुआ। वस्तुतः पूर्ण विश्वास किया जाता है कि निश्चयमेव वह भद्र आत्मा तीसरे स्वर्ग में पहुंची है। इस प्रकार कार्तिक शुक्ला में ५१ वर्ष १० मास का संयम पाल कर कुल ६८ वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर मंदसोर भूमि में स्वर्गस्थ हुए। आपका शिष्य परिवार (१) कवि श्री हीरालालजी महाराज, (२) पं० श्री नन्दलालजी महाराज, (३) मुनिश्री माणकचन्दजी महाराज । पं० रत्न कवि श्री हीरालालजी महाराज वि० सं० १६०९ आषाढ़ शुक्ला ४ के दिन कंजार्डा ग्राम में आपका जन्म हुआ और ११ वर्ष की लघु वय में अर्थात् संवत् १९२० पौष मास में अपनी जन्म भूमि में आप दीक्षित हुए । स्वभाव की दृष्टि से आप अपने ज्येष्ठ भ्राता गुरुदेव श्री जवाहरलाल जी म० की तरह सरल-शांत समता-संतोष आदि गुणों में सम्पन्न थे। बुद्धि तीक्ष्ण थी। स्वल्प समय में ही पर्याप्त शास्त्रीय ज्ञान के साथ-साथ व्याकरण, छन्द, पिंगल आदि विषयों का अच्छा ज्ञान और अनुभव संपादन किया। उस समय आपका व्यक्तित्व सफल वक्ता और सफल कवि के रूप में समाज में उभरा। आपकी रुचि कविता, स्तवन, गीतिका एवं लावणियाँ रचने में व गाने में अधिक थी। वस्तुत: आपने अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न विषयों को लेकर भक्ति, वैराग्य एवं उपदेशात्मक, भावभाषा की दृष्टि से सरल, सुबोध, प्रेरणादायक विविध कविताएँ, स्तवन, सवैया और चौपाइयां आदि की सुन्दरतम रचना करके साहित्य भण्डार के विकास में सराहनीय योगदान प्रदान किया है। कंठ माधुर्य का आकर्षण इतना था कि आपके व्याख्यान में श्रोताओं के अतिरिक्त चलतेफिरते राहगीरों की खासी भीड़ स्वर लहरियों को सुनने के लिए खड़ी हो जाया करती थी। अद्यावधि आपकी अनेकों कविताएँ भजन और सवैया जनजिह्वा पर गुनगुनाते सुनाई देते हैं। पर्युषण पर्व के दिनों "एवंता मुनिवर नाव तीराई बहता नीर में" इस लावणी को जब भावुक मन गाते हैं, तब गायक और श्रोतागण भक्ति रस में झूम जाते है। वि० सं० १९७४ का वर्षावास अजमेर था। 'इदं शरीरं व्याधि मंदिरम्' के अनुसार शरीर व्याधिग्रस्त हआ। काफी उपचार के बावजूद भी व्याधि उपशांत नहीं हुई। अन्त में आपने संथारा स्वीकार किया। गुरुदेव श्री नन्दलालजी म० एवं जैन दिवाकर श्री चौथमल जी म० आदि संतों की उपस्थिति में ६५ वर्ष की आयु में लगभग ५४ वर्ष की संयमाराधना करके अजमेर शहर में आप स्वर्गवासी हुए । प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर श्री चौथमलजी म. आपके ही शिष्यरत्न थे। वर्तमान काल में आपका शिष्य-प्रशिष्य परिवार इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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