Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

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Page 410
________________ ३७५ गुरु-परंपरा की गौरव गाथा समयानुसार आचार्य प्रवर श्री शिवलालजी म० त० श्री राजमलजी, भावी आ० श्री चौथमल जी म०, श्री रतनचन्दजी म०, श्री देवीचन्दजी म०, आदि मुनि आठ और महासती श्री रंगूजी, त० श्री नवलाजी महासती एवं श्री वृजूजी महासती आदि का कंजार्डा में शुभागमन हुआ । हजारों दर्शनार्थियों की उपस्थिति में वि० सं० १९२० पौष शुक्ला ६ की पवित्र वेला में श्री राजकुंवर बाई (श्री रतनचन्दजी म. की धर्मपत्नी ) ने संघ हित व आत्म कल्याण को दृष्टि से अपने पंद्रह वर्षीय पुत्र श्री जवाहरलाल को, बारह वर्षीय श्री हीरालाल को और आठ वर्षीय लघुपुत्र नन्दलाल को दीक्षित करने के पश्चात आप स्वयं राजकुंवर बाई महासती नवलाजी की शिष्या बन गई । चराचर सम्पति को ज्यों की त्यों खुली छोड़कर सारा परिवार त्याग - वैराग्य की पवित्र परपरा का पथिक बन जाना, कोई मामूली काम नहीं है। अपितु एक आदर्श त्याग और धीर-वीर इतिहास का आविर्भाव ही माना जायगा । जो सचमुच ही स्वाभिमान का प्रतीक है । श्री रतनचन्दजी म० के नेश्राय में बड़े पुत्र श्री जवाहरलालजी म० को और श्री जवाहर लालजी म० के नेत्राय में श्री हीरालालजी म० को एवं श्री नन्दलालजी म० को घोषित किया गया । उपस्थित विशाल जनसमूह ने उनके महान् त्याग की मुग्ध कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा'आज हमें चौथे आरे का दृश्य देखने को मिला ।' इस प्रकार श्रद्धय श्री रतनचन्दजी म० ३६ वर्ष पर्यंत शुद्ध संयम धर्म की आराधना कर संथारा सहित वि० सं० १९५० के वर्ष में जावरा नगर में सद्गति को प्राप्त हुए । ३६ वर्ष आप संसारावस्था में रहे और ३६ वर्ष संयम में, इस प्रकार आपकी कुल आयु ७२ वर्ष की थी । आप के विषय में पूज्य श्री खूबचन्दजी म० द्वारा निर्मित गीतिका इस प्रकार है श्री रतनचन्दजी महाराज का गुणानुवाद (तर्ज-- ते गुरु चरणा रे नमिये) Jain Education International रतन मुनि गुणीजन रे पूरा हुआ तप संयम में शूरा || || गाँव कंजाडां रे गिरि में, तिहा जन्म लियो शुभ घड़ी में । जीवन की वय जद रे आया, मन वैराग मजीठ का छाया ॥ १ ॥ गुरु राजमलजी के पासे, लियो संजम आप हुलासे । साथै दीवी चंदजी रे साला ते तो निकल्या दोनूँ लारा ||२|| निज घर नारी रे छोड़ी, ममता तीन पुत्र से तोड़ी । छः वर्ष पीछे रे ते पिण, सब निकल गया तज सगपण || ३ || छत्तीस वर्ष संजम रे पाल्यो, जाने नरभव लाभ निकाल्यो । अठारा से अठोतर में जाया, उन्नीसे पचास में स्वर्ग सिधाया || ४ || उगणी से इकातर के माँही, जाँ की जश कीर्ति सुख गाई । कभी तो होगा रे तिरना, मुझे नंदलाल गुरुजी का शरना ||५|| गुरुजी श्री जवाहरलालजी महाराज आपका जन्म वि० सं० १६०३ वसन्त ऋतु के दिनों में और दीक्षा सं० १९२० पौष शुक्ला ६ के दिन हुई । शैशव काल से ही आप शीतल प्रकृति के धनी थे । कोई बालक आपको गाली देता तो भी प्रत्युत्तर में आप शांत रहते । दीक्षित होने के पश्चात् कुछ ही समय में काफी ज्ञान एवं अनेक द्रव्यानुयोग के बोल कंठस्थ किये। धीरे-धीरे काफी आगमिक अनुभव प्राप्त किया। प्रकृति के आप शशिवत् शीतल, शांत, दांत, सरल, स्वाध्यायरत एवं सागर सदृश गम्भीर आदि अनेक गुणों से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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