Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

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Page 408
________________ गुरु-परम्परा की गौरव गाथा श्री प्रकाश मुनि ( मेवाड़ भूषण श्री प्रतापमलजी महाराज के शिष्य ) उन दिनों स्थानकवासी समाज के अन्तर्गत कोटा संप्रदाय की ख्याति भारत के काफी मू-भाग में परिव्याप्त थी । आज भी स्थानकवासी जैन समाज में कोटा सम्प्रदाय का नामोल्लेख गरिमा के साथ लिया जाता है। कारण कि स्था० जैन समाज की प्रगति में इस संप्रदाय का अत्यधिक योगदान रहा है । वस्तुतः अन्य शाखा प्रशाखाओं की तरह इस शाखा का महत्त्व भी प्रभावपूर्ण रहा है । श्रद्धेय आचार्य प्रवर श्री दौलतरामजी म० के पदानुगामी आ० श्री लालचन्दजी म० और आपके पट्टापट्ट आचार्य श्री शिवलाल जी म० हुए। जिनकी विस्तृत जानकारी 'हमारे ज्योतिधर आचार्य' नामक लेख में अंकित को गई है । आपके समोज्ज्वल थर्म शासन में कोटा संप्रदाय का चहुँमुखी विकास हुआ। इस कारण आप (आ० श्री शिवलालजी म०) को कुलाचार्य के नाम से विभूषित किया गया । आ० श्री शिवलालजी म० के अनेक शिष्यरत्न हुए जिनकी नामावली निम्न है आ० श्री उदयसागरजी म० पं० रत्न श्री मगनीरामजी म० पं० रत्न श्री गणेशलालजी म० पं० रत्न श्री धनाजी म० पं० रत्न श्री अनोपचन्दजी म० आ० श्री चौथमलजी म० तपस्वी श्री राजमलजी म० श्री रतनचन्द जी का वैराग्य और दीक्षा वि० सं० १९९४ के दिनों में तपोधनी श्री राजमलजी म० का कंजार्डा (रामपुरा, मध्य प्रदेश) में पदार्पण हुआ । स्थानीय संघ ने शुभागत मुनिमण्डल का भावमीना स्वागत किया । जन मन की सुप्त भावना पुनः आनन्द विभोर हो उठी । वैराग्यपूर्ण व्याख्यानों से जनता लाभान्वित होने लगी । यद्यपि गाँव छोटा था, और घर स्वल्प संख्या में थे। फिर भी धर्माराधना की दृष्टि से पर्व जैसा ठाट रहा । उपदेशामृत का पान कर वहाँ के निवासी श्रीमान् रतनचन्दजी मण्डारी की भावना संसार के प्रति उदासीन हो उठी । तपस्वी महाराज बिल्कुल ठीक फरमाते है- “आयु के अमूल्य क्षण बीतते हुए चले जा रहे हैं । गया यौवन वापिस आता नहीं है। एक दिन शरीर सूखे पत्तों की तरह पीला इसलिए तपस्वी म० के चरणों में मैं दीक्षा ग्रहण कर जीवन कि 'बेलारा वाया मोती निपजे' ऐसा अवसर फिर मुझे कब पढ़कर काल के गाल में समा जाता है। सफल करूँ तो अच्छा है । कहते हैं मिलेगा ?" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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