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मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ
तक आप इस सम्प्रदाय के अन्तर्गत रहे; फिर सदैव के लिए इस सम्प्रदाय को वोसिरा कर आप सीधे दिल्ली पहुंचे।
उस समय स्थानकवासी सम्प्रदाय के महान् क्रियापात्र विद्वद्वयं मुनि श्री देवीलालजी म०, पं० रत्न श्री केशरीमलजी म० आदि सन्त मण्डली चांदनी चौक दिल्ली में विराज रहे थे। श्री सहस्रमलजी मुमुक्षु ने दर्शन किये व दयादान विषयक अपनी वही पूर्व जिज्ञासा, शंका, ज्यों की त्यों वहाँ विराजित मुनि प्रवर के सामने रखी और बोले- "यदि मेरा सम्यक् समाधान हो जाएगा, तो मैं निश्चयमेव आपका शिष्यत्व स्वीकार कर लूँगा ।" अविलम्ब मुनिद्वय ने शास्त्रीय प्रमाणोपेत सांगोपांग स्पष्ट सही समाधान कह सुनाया । आपको पूर्णतः आत्म-सन्तोष हुआ । उचित समाधान होने पर अति हर्ष सहित सं० १९७४ भादवा सुदी ४ की शुभ मंगल वेला में शुद्ध मान्यता और शुद्ध सम्प्रदाय के अनुयायी बने, दीक्षित हुए ।
तत्व खोजी के साथ-साथ आपकी ज्ञान संग्रह की वृत्ति स्तुत्य थी। पठन-पाठन में मी आप सदैव तैयार रहते थे। ज्ञान को कंठस्थ करना आपको अधिक अभीष्ट था इसलिए ढेरों
सवैये लावणियाँ, श्लोक, गाया व दोहे वगैरह आपकी स्मृति में ताजे थे। यदा-कदा भजन स्तवन
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भी आप रचा करते थे । जो धरोहर रूप में उपलब्ध होते हैं ।
व्याख्यान शैली अति मधुर, आकर्षक, हृदयस्पर्शी व तात्त्विकता से ओत-प्रोत थी । चर्चा करने में भी आप अति पटु व हाजिर-जबावी के साथ-साथ प्रतिवादी को झुकाना भी जानते थे । जनता के अभिप्रायों को आप मिनटों में भांप जाते थे। व्यवहार धर्म में आप जति कुशल और अनुशासक (Controller) भी पूरे थे।
• सं० २००६ चैत्र शुक्ला १३ की शुभ घड़ी में नाथद्वारा के भव्य रम्य प्रांगण में आप "आचार्य" बनाये गये। कुछेक वर्षों तक आप आचार्य पद को सुशोभित करते रहे। तत्पश्चात् संधैक्य योजना के अन्तर्गत आचार्य पदवी का परित्याग किया और श्रमण संघ के मंत्री पद पर आसीन हुए। इसके पहिले भी आप सम्प्रदाय के "उपाध्याय" पद पर रह चुके हैं। इस प्रकार रत्नत्रय की खूब आराधना कर सं० २०१५ माघ सुदी १५ के दिन रूपनगढ़ में आपका स्वर्गवास हुआ ।
पाठक वृन्द के समक्ष पूज्य प्रवर श्री हुक्मीचन्द जी म सा० के सम्प्रदाय के महान् प्रतापी पूर्वाचायों की विविध विशेषताओं से ओत-प्रोत एक नन्हीं सी झांकी प्रस्तुत की है जिनकी तपाराधना, ज्ञान-साधना एवं संयम पालना अद्वितीय थी।
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