Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

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Page 421
________________ मुनिद्रय अभिनन्दन ग्रन्थ चन्द्रप्रति अपने विषय विभाजन व प्रतिपादन में सूर्यप्रज्ञप्ति से अभिन्न है। मूलतः ये दोनों अवश्य अपने-अपने विषय में भिन्न रहे होंगे, किन्तु उनका मिश्रण होकर वे प्रायः एक से हो हो गये हैं। श्री पं० नेमिचन्द्र शास्त्री ने लिखा है कि इसका विषय सूर्यप्रज्ञप्ति की अपेक्षा परिष्कृत है । इसमें सूर्य की प्रतिदिन की योजनात्मिका गति निकाली है तथा उत्तरायण और दक्षिणायन की वीथियों का अलग-अलग विस्तार निकाल कर सूर्य और चन्द्रमा की गति निश्चित की है। इसके चतुर्थ प्राभृत में चन्द्र और सूर्य का संस्थान तथा तापक्षेत्र का संस्थान विस्तार से बताया है । ग्रन्थकर्ता ने समचतुस्र, विषमचतुस्र आदि विभिन्न आकारों का खण्डन कर सोलह वीथियों में चन्द्रमा का समचतुख गोल आकार बताया है। इसका कारण यह है कि सुषमा- सुषमा • काल के आदि में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन जम्बूद्वीप का प्रथम सूर्य पूर्वदक्षिण (अग्निकोण) में और द्वितीय सूर्य पश्चिमोत्तर (वायव्यकोण) में चला। इसी प्रकार प्रथम चन्द्रमा पूर्वोत्तर (ईशानकोण ) में और द्वितीय चन्द्रमा पश्चिम दक्षिण (नेऋत्यकोण) में चला। अतएव युमादि में सूर्य और चन्द्रमा का समचतुस्र संस्थान था, पर उदय होते समय ये ग्रह वर्तुलाकार से निकले, अतः चन्द्र और सूर्य का आकार अर्द्ध पीठ अर्धसमचतुख गोल बताया है। ३८४ 3 । चन्द्रप्रज्ञप्ति में छाया साधन किया है; तथा छाया प्रमाण पर दिनमान का भी प्रमाण निकाला है। ज्योतिष की दृष्टि से यह विषय महत्त्वपूर्ण है । चन्द्र प्रज्ञप्ति के ११ प्राभृत में चन्द्रमा को स्वतः प्रकाशमान बतलाया तथा इसके घटने बढ़ने का कारण भी स्पष्ट किया है। १८वें प्राभृत में चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं की ऊँचाई का कथन किया है प्रारम्भ में अन्य मान्यताओं की मीमांसा की गई है और अन्त में जैन मान्यता के योजन से लेकर ६०० योजन की ऊँचाई के बीच ग्रह नक्षत्रों की स्थिति बतायी है । सूर्य और चन्द्र ग्रहणों का वर्णन किया गया है तथा राहु और केतु के पर्यायवाची शब्द भी गिनाये गये हैं, जो आजकल के प्रचलित नामों से भिन्न हैं । चन्द्रमा को स्वतः प्रकाशमान बतलाना वर्तमान युग की खोजों के सन्दर्भ में कितना सत्य है, यह विद्वान पाठक स्वयं विचार कर लें। क्योंकि वर्तमान मान्यता ठीक इसके विपरीत है । इस प्रकरण के अनुसार ७६० २०वें प्राभृत में 1 'ज्योतिषकरण्डक' नामक एक प्राचीन ग्रन्थ है जिसे मुद्रित प्रति में पूर्वमृद् बालभ्य प्राचीनतराचार्य कृत' कहा गया है। इस पर पादलिप्तसूरिकृत टीका का भी उल्लेख मिलता है। इस टीका के अवतरण मलयगिरि ने इस ग्रन्थ पर लिखी हुई अपनी संस्कृत टीका में दये हैं। उपलभ्य 'ज्योतिष-करण्डक' - प्रकीर्णक में ३७६ गाथाएँ हैं, जिनकी भाषा व शैली जैन महाराष्ट्री प्राकृत रचनाओं से मिलती है। ग्रन्थ के आदि में कहा गया है कि सूर्यप्रज्ञप्ति में जो विषय विस्तार से वर्णित है उसको यहाँ संक्षेप से पृथक् उद्धृत किया जाता है । ग्रन्थ में कालप्रमाण, मान, अधिक मास निष्पत्ति, तिथि निष्पत्ति, नक्षत्र, चन्द्र-सूर्य गति, नक्षत्र योग, मण्डल विभाग, अयन आवृत्ति, मुहूर्त, गति, ऋतु विषुवत (अहोरात्र समत्व ), व्यतिपात ताप दिवस शुद्धि, अमावस, पूर्णमासी, १ भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ ६६ भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ ६२-१३ भारतीय ज्योतिष, पृष्ठ १३ २ ३ ४ ५ ६ वही, पृष्ठ ६४ भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृष्ठ १० प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृष्ठ १३१ Jain Education International 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/

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