Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

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Page 344
________________ जैनधर्म के आधारभूत तत्त्व : एक दिग्दर्शन (३) क्रमशः विधि प्रतिषेध कल्पना - स्यात् अस्ति नास्ति च । (४) युगपद् विधि प्रतिषेध कल्पना- स्यात् अवक्तव्य । (५) विधि कल्पना और युगपद् कल्पना – स्यादस्ति चावक्तव्यः । (६) प्रतिषेध कल्पना और युगपद् प्रतिषेध कल्पना – स्यान्नास्ति चावक्तव्यः । (७) क्रम और युगपद् विधि प्रतिषेध कल्पना- स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यः । महान् दार्शनिक श्री यशोविजयजी के मतानुसार सप्तभंगी सात प्रकार के प्रश्नों और सात प्रकार के उत्तरों पर निर्भर है ?? यहाँ जो 'स्यात्' शब्द का प्रयोग हुआ है वह क्रियावाचक भी होता है । किन्तु प्रस्तुत सन्दर्भ में 'स्यात्' शब्द निपात के रूप में प्रयुक्त हुआ है। जैनधर्म का विचार पक्ष अनेकान्तवाद है वहीं आचार-पक्ष है अहिंसा | आचार-पक्ष अहिंसा का विकास जैन परम्परा में उतना अन्य किसी भी भारतीय परम्परा में नहीं हुआ है। की वस्तु है | अहिंसा से बढ़कर इन्सान को इस धरती पर हो सकता। जैनधर्म व सिद्धान्त के आलोचक भी किसी करते हैं। - Jain Education International ३०६ अहिंसा का जितना विकास हुआ है जैन परम्परा के लिए यह एक गौरव अन्य कोई धर्म और आचार नहीं न किसी रूप में अहिंसा को स्वीकार अपने-अपने युग में इस अहिंसा के आचार का इसके अनन्त आकाश के नीचे मृत्युलोक की तीर्थकर, गणधर बुतपर और आचायों ने इतना गम्भीर और विराट रूप प्रस्तुत किया है कि धरा पर पनपने वाले समस्त धर्मों का समावेश इसमें हो जाता है । जहाँ अनेकान्तवाद एक दृष्टि एवं एक विचार है, सत्य के अनुसन्धान की एक पद्धति है मानव मस्तिष्क की एक जटिल उलझन नहीं, बल्कि इसको समझे बिना मानव जीवन के किसी भी पहलू को न समझा जा सकता है, न सुलझाया जा सकता है । आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्तवाद ये दो जैनधर्म के मूलभूत सिद्धान्त है। इनका समन्वित मार्ग ही जीवन का विकास है । ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः जैनधर्म का मूल - भारतीय दर्शन और धर्म के विचारकों ने आत्मा और परमात्मा व विश्व के बारे में गहन चिन्तन-मनन और अन्वेषण किया है। इस अध्यात्म-ज्ञान परम्परा को भारतीय साहित्य में श्रुति श्रुत और आगम कहा गया है। जैनधर्म के अनुसार गणधर तीर्थंकर की वाणी को ग्रहण करके सूत्ररूप में उसकी संरचना करते हैं। इसी को श्रुत, शास्त्र व आगम कहा जाता । | जैनधर्म की यह मान्यता है कि प्रत्येक तीर्थंकर अपने शासन काल में द्वादशांग वाणी की देशना करते हैं । अनन्त अतीत के तीर्थंकरों ने जो कुछ कहा है वही तत्त्व-ज्ञान वर्तमान काल के तीर्थकरों ने कहा है । अनन्त अनागत तीर्थकर भी कहेंगे । अतः प्रवाह की दृष्टि से द्वादशांग वाणी अनादि अनन्त भी है । परन्तु किसी भी व्यक्ति विशेष की दृष्टि से सादिसान्त भी है । प्रवाह से अनादि अनन्त होते हुए भी कृतक है, अकृतक नहीं पौरुषेय है अपौरुषेय नहीं। वाणी भाषा है और भाषा शब्दों का समूह है। वाणी, भाषा शब्द किसी भी शरीर के प्रयत्न से ही उत्पन्न हो सकता है | तात्वादि जन्माननुवर्णवर्शो वर्णात्मको वदे इतिस्फुटं च । पुंसश्च तात्वादिततः कथं स्यात् अपौरुषेयोऽयमिति प्रतीतिः ॥ १ इयं च सप्तभङ्गी वस्तुनि प्रतिपर्याय सप्तविध धर्माणां सम्भवात् सप्तविधसंशयोत्थापित सप्तविधजिज्ञासामूस सप्तविधप्रश्नानुरोधादुपपद्यते । - जनतर्कभाषा-सप्तभंगी स्वरूपचर्चा - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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