Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

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Page 375
________________ ३४० मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ यदि नैतिक आचरण एक सापेक्ष तथ्य है और देशकाल तथा व्यक्तिगत परिस्थितियों से प्रभावित होता है तो प्रश्न उपस्थित होता है कि किस स्थिति में किस प्रकार का आचरण किया जाए, इसका निश्चय कैसे किया जाए ? जैन विचारणा कहती है नैतिक आचरण के क्षेत्र में उत्सर्ग मार्ग सामान्य मार्ग है, जिस पर सामान्य अवस्था में हर एक साधक को चलना होता है। जब तक देश काल और वैयक्तिक दृष्टि से कोई विशेष परिस्थिति उत्पन्न नहीं हो जाती है तब तक प्रत्येक व्यक्ति को इस सामान्य मार्ग पर ही चलना होता है, लेकिन विशेष अपरिहार्य परिस्थितियों में वह अपवाद मार्ग पर चल सकता है। लेकिन यहाँ भी यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इसका निर्णय कौन करे कि किस परिस्थिति में अपवाद मार्ग का सेवन किया जा सकता है। यदि इसके निर्णय करने का अधिकार व्यक्ति स्वयं को दे दिया जाता है तो फिर नैतिक जीवन में समरूपता और वस्तुनिष्ठता (Objectivity) का अभाव होगा, हर एक व्यक्ति अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो अपवाद मार्ग का सहारा लेगा । जैन विचारणा इस क्षेत्र में व्यक्ति को अधिक स्वतन्त्र नहीं छोड़ती है। वह नैतिक प्रत्ययों को इतना अधिक व्यक्तिनिष्ठ (Subjective) नहीं बना देना चाहती है कि प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उनको मनमाना रूप दिया जा सके । जैन विचारणा नैतिक मर्यादाओं को यद्यपि इतना कठोर भी नहीं बनाती कि व्यक्ति उनके अन्दर स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण नहीं कर सके लेकिन वे इतनी अधिक लचीली भी नहीं हैं कि व्यक्ति अपनी इच्छानुसार उन्हें मोड़ दे। उपाध्याय अमर मु शब्दों में "जैन विचारणा में नैतिक मर्यादाएं उस खण्डहर दुग के समान नहीं हैं जिसमें विचरण की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है लेकिन शत्रु के प्रविष्ट होने का सदा भय बना होता है, वरन् सुदृढ़ चार दीवारियों से युक्त उस दुर्ग के समान है जिसके अन्दर व्यक्ति को विचरण की स्वतन्त्रता है और विशेष परिस्थितियों में वह उससे बाहर भी आ जा सकता है लेकिन शर्त यही है कि ऐसी प्रत्येक स्थिति में उसे उस दुर्ग के द्वारपाल की अनुज्ञा लेनो होगी।" जैन विचारणा के अनुसार नैतिकता के इस दुर्ग में द्वारपाल के स्थान पर 'गीतार्थ होता है जो देश, काल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों को समुचित रूप में समझकर सामान्य व्यक्ति को अपवाद के क्षेत्र में प्रविष्ट होने की अनुज्ञा देता है। अपवाद की व्यवस्था के सम्बन्ध में निर्णय देने का समस्त उत्तरदायित्व गीतार्थ पर ही रहता है। गीतार्थ यह व्यक्ति होता है जो नैतिक विधि-निषध के आचारांगादि आचार संहिता और निशीथ आदि छेदसूत्रो का मर्मज्ञ हो, साथ ही स्व-प्रज्ञा से देश-काल एवं वैयक्तिक परिस्थितियों को समझ में समर्थ हो । जैनागमों में गीतार्थ के सम्बन्ध में कहा गया है “गीतार्थ वह है जिसे कर्तव्य और अकर्तव्य के लक्षणों का यथार्थ रूपेण ज्ञान है। जो आय-व्यय, कारण-अकारण, अगाढ़ (रोगी, वृद्ध) अनागाढ़, वस्तु-अवस्तु, युक्त-अयुक्त, समर्थ-असमर्थ, यतना-अयतना का सम्यग्ज्ञान रखता है, साथ ही समस्त कर्तव्य कर्म के परिणामो को भी जानता है वही विधिवान गीतार्थ है"२ यद्यपि जैन नैतिक विचारणा के अनुसार परिस्थिति विशेष में कर्तव्याकर्तव्य का निर्धारण गीतार्थ करता है लेकिन उसके मार्ग निर्देशक के रूप में आगम ग्रन्थ ही होते हैं। यहां पर जैन नैतिकता की जी विशेषता हमें देखने को मिलता है वह यह है कि वह न तो एकान्त रूप से शास्त्रों को ही सारे विधि-निषेध का आधार बनाती है और न व्यक्ति को ही । उसमें शास्त्र मार्गदर्शक है लेकिन निर्णायक नहीं । व्यक्ति किसी परिस्थिति विशेष में क्या कतव्य है और क्या अकर्तव्य है इसका निर्णय तो ले सकता है लेकिन उसके निर्णय मे शास्त्र ही उसका मार्गदर्शक होता है। १ (अ) अधिगत निशीथादि श्रुत सूत्रार्थ (ब) गीतो-विज्ञात कृत्या कृत्य लक्षणोऽर्थो येन स गीतार्थः। -अमिधान राजेन्द्र कोष, खण्ड ३ २ आय कारण गाढं वत्थु जुत्तं संसक्ति जयणं च । सव्वं च पडिवक्ख फल च विधिवं वियाणाह । -बृहत्कल्प नियुक्तिभाष्य ९५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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