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आदर्श गृहस्थ बनाम श्रावकधर्म
सत्य असत्य वचन बोलना ही झूठ कहलाता है। असत्य या वह सत्य जो वस्तु स्थिति के अनुकल और हितकारी नहीं हो, झूठ है। इसलिए शास्त्र में कहा गया है कि "सत्य बोलो, प्रिय बोलो और सत्य का प्रयोग इस तरह न करो जो दूसरों को अप्रिय हो।" इसका मूल भाव गृहस्थ या व्यक्ति के आत्म-परिणामों की शुद्धि, स्व अथवा दूसरों का अहित एवं हिंसा का निवारण है। इसका पालन करने के लिए श्रावक को इस अणुव्रत की सीमा यह है कि स्वयं या दूसरों की रक्षा निमित्त किये गये कार्यों में असत्य के प्रयोग में आंशिक पाप का भागी है । क्योंकि उनकी मूल भावना दूषित नहीं होना यही उसका कारण है । द्रव्याहिंसा से भावहिंसा का महत्त्व पाप-पुण्य के विचार से अधिक है।
अतिचार द्रव्य व भावहिंसा के अतिरिक्त “झूठा उपदेश देना, किसी का रहस्य प्रगट करना, झूठे लेख तैयार करना, किसी की अमानत को वापस न लौटाना या कम देना या भूल जाना, किसी का मन्त्र भेद खोल देना" ये भी इसके ५ मूल अतिचार हैं जो कि स्पष्ट रूप से सामाजिक जीवन में हानिकारक सिद्ध हुए है, जिनके द्वारा मानव जीवन संघर्षमय होता है । इसके परिपालन के लिए क्रोध, लोभ, भीरुता, हँसी-मजाक का परित्याग और भाषण में औचित्य का ध्यान रखने का अभ्यास व आवश्यक रूप से ध्यान रखना अनिवार्य है। जैनधर्म के अलावा वैदिक धर्म में भी "सत्यम् शिवम् सुन्दरम्" को ही अधिक महत्त्व दिया है।
अस्तेय किसी भी व्यक्ति को बिना आज्ञा के कोई वस्तु लेना भी चोरी है। आदर्श गृहस्थ के लिए उस वस्तु को लेने का अधिकार है जिस पर स्पष्ट रूप से किसी का अधिकार एवं रोक न हो एवं चोरी न करना और दूसरों के द्वारा करवाना चोरी के सामान या धन का उपयोग करना या रखना, स्मगलिंग द्वारा वस्तुओं का आयात-निर्यात करना, निश्चित माप-तोल से कम या अधिक तोलना, असली के बदले नकली देना ये अस्तेय के अतिचार हैं। इनका आदर्श गृहस्थ को परित्याग करना चाहिए। इस व्रत के द्वारा व्यापार में सचाई व ईमानदारी को स्थापित करने का प्रयत्न प्रस्तुत किया है। जिनका पालन इस समय अत्यन्त आवश्यक है। क्योंकि आज चारों ओर भ्रष्टाचार एवं मिलावट, कम देना, असली के बदले नकली देना आदि का प्रचलन उच्च स्तर पर है जो कि भयंकर सिद्ध हो रहा है। मिलावट के कारण अनेकों प्रकार की बीमारियां पैदा हो रही हैं। जिसके कारण आज मानव समाज व देश में अशांति फैल रही है। इन सब बातों के निवारण के लिए आज अस्तेय व्रत के पालन की आचार संहिता की परम आवश्यकता है, आदर्श ग्रहस्थ के लिए अति आवश्यक है।
ब्रह्मचर्य प्रत्येक इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है किन्तु अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा स्पर्श इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना कठिन है अतः साधारण बोलचाल की भाषा में स्पर्शनेन्द्रिय को वश में करना, वीर्य की रक्षा करना या स्त्री के संसर्ग का त्याग करना ही ब्रह्मचर्य का अर्थ है। किन्तु सूक्ष्मता से अर्थ पर विचार किया जाय तो स्पष्ट है कि प्रत्येक इन्द्रिय को जीतना और आत्मनिष्ठ बन जाना ही ब्रह्मचर्य का अर्थ है। इसके अन्तर्गत चाहे स्त्री हो या पुरुष उसे स्व-स्त्री या स्व-पति के अलावा समस्त पुरुषों को माई, पिता व पुत्र मानना व सभी स्त्रियों को माता, बहन पुत्री सदृश विचार एवं व्यवहार रखना श्रावक पूर्ण रूप से अंगीकार करता है तो उसे सर्वथा ही विषय-मोगों का परित्याग नहीं करना पड़ता है।
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