Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

View full book text
Previous | Next

Page 361
________________ ३२६ मुनिद्वय अभिनन्दन ग्रन्थ के बाहर न जाना, दूसरों को न भेजना और बाहर से लाई हुई वस्तु का उपभोग नहीं करना और क्रय-विक्रय के ऊपर भी मर्यादा आती है। जीवन में महारम्भ की प्रवृत्तियों को कम कर अल्पारम्भ को अपनाना होता है। जिसमें स्वदेशी व्रत को सहज प्रेरणा मिलती है और खादी ग्रामोद्योग को सहज सहयोग प्राप्त होता है। जो व्यक्तिगत सन्तोष के साथ-साथ दूसरे को रोजी-रोटी प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करता है। अल्पारंभ को संरक्षण मिलता है। (३) पोषध व्रत आत्मा-विकास के साधक के लिए चितन, आत्मनिरीक्षण और अपने ध्येय की जागति के लिए कुछ समय निकालना आवश्यक होता है। जिसमें आठ प्रहर तक श्रमणचर्या अपनाई जाती है। (४) अतिथिसंविभाग व्रत अतिथिसंविभाग में गृहस्थ द्वारा अपने यहां आने वाले सन्त सज्जनों की समुचित व्यवस्था करना, दीन-दुखियों की सहायता करना, कष्ट से पीड़ित या दुखियों के सहानुभूति सहयोग देना आदि है। गृहस्थी पास-पड़ोसी और जरूरतमन्द को मदद करता है, वह उसका सहज कर्तव्य है। इन व्रतों के अतिरिक्त जैन गृहस्थ दान, शील, तप और भावना को अपने जीवन में महत्वस्थान देते आये है। खासकर दान की बडी महिमा गाई गई है। फलस्वरूप दान जैनियों के दैनिक जीवन का अंग ही बन गया है। फिर सभी दानों में अभयदान को श्रेष्ठ माना है और अभयदान की तरह ज्ञानदान, औषधिदान और अन्नदान को समता की साधना में उपयुक्त साधन माना है। ईसाई, मुस्लिम और बौद्धों की तरह अन्य धर्मियों को अपने धर्म में दीक्षित करने वाले धर्मों की तरह जैनधर्म भी धर्मान्तर को मानने वाला धर्म था और उसने कई मारतेतर जातियों को अपने धर्म में दीक्षित किया था। दक्षिण में दो हजार वर्ष पूर्व धर्म-प्रचार किया था उसमें अन्नदान, औषधिदान, ज्ञानदान और अभयदान साधन के रूप में अपनाया था। दान ने जैनियों के दैनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान पा लिया है और आज भी जैनियों के जीवन में सहज रूप से दान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनेकों अस्पताल, शिक्षा संस्थायें, पिंजरापोल तथा राहत के काम उनके द्वारा चलते हैं। कई लोगों का अनुमान है कि सेवा कार्यों द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार जो दिखाई दे रहा है यह तरीका शायद अठारहसौ साल पहले मलाबार के किनारे से यह बात ईसाइयों ने अपनाई हो। जन शिक्षा का काम जैन गुरुओं ने संभाल रखा था और कुछ वर्ष पूर्व तक शिक्षा के प्रारम्भ में ओ३म् नमः सिद्धाय लिखा जाता था वह जैन संस्कृति का हो चिन्ह था। जैनधर्म में अन्धश्रद्धा को कतई स्थान नहीं था, वह पुरुषार्थ और बुद्धिवाद पर आधारित धर्म था और उसमें अपने भाग्य का विधाता अपने आप को ही मानकर स्वावलम्बन की शिक्षा दी जाती थी और आचार और नीति धर्म को प्राथमिकता दी जाती थी । धर्म जन-जीवन के आचार में उतरे इसलिए उसमें ऊँच-नीच का भेद नहीं था। जो भी इस धर्म का पालन करता वह जिन का अनुयायी बन सकता था । एक तरह से जैनधर्म जनधर्म है और जनधर्म होने से जनता के लिए उपयोगी हो ऐसी ही नोति की विधा उसमें पाई जाती है। वह समता पर आधारित होने से उससे छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष, ऊँच-नीच सभी लाभान्वित हो सकें ऐसी व्यापकता है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वह सबके लिए कल्याणकारी है, उसका सर्वोदयी रूप इसीलिए आज के युग में अधिक आकर्षक है। उसमें सभी समस्याओं को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454