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जैनदर्शन में नैतिकता की सापेक्षता और निरपेक्षता
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देता है। दान देना नैतिक कर्म है लेकिन कुपात्र को अथवा यश प्राप्ति के निमित्त दिया हआ दान अनैतिक हो जाता है। अतः आचरण की शुभता अथवा अशुभता का निश्चय निरपेक्ष रूप से नहीं किया जा सकता है। उपाध्याय अमर मुनि जी लिखते हैं "त्रिभूवनोदर विवरवर्ती समस्त अंसंख्येय भाव अपने आप में न तो मोक्ष के कारण हैं और न संसार के कारण हैं। साधक की अपनी अन्तः स्थिति ही उन्हें अच्छे या बुरे का रूप दे देती है।"1 लेकिन न केवल साधक की मनःस्थिति जिसे जैन शब्दावली में भाव कहते हैं आचरण के तथ्यों का मूल्यांकन करती है वरन् उसके साथ-साथ जैन विचारकों ने द्रव्य, क्षेत्र और काल को भी कर्मों की नैतिकता और अनैतिकता का निर्धारक तत्व स्वीकार किया है। आचार्य आत्मारामजी महाराज अपनी आचारांग सूत्र की व्याख्या में लिखते हैं बन्ध और निर्जरा (नैतिकता और नैतिकता) में भावों की प्रमुखता है परन्तु भावों के साथ स्थान और क्रिया का भी मूल्य है ।२ आचार्य हरिभद्र के अष्टक प्रकरण की टीका में आचार्य जिनेश्वर ने चरक संहिता का एक श्लोक उदधृत किया है जिसका अर्थ है कि देशकाल और रोगादि के कारण मानवजीवन में कभी-कभी ऐसी अवस्था भी आ जाती है जब अकार्य कार्य बन जाता है और कार्य अकार्य बन जाता है। जो विधान है, वह निषेध की कोटि में चला जाता है और जो निषेध है वह विधान की कोटि में चला जाता है। इस प्रकार जैन नैतिकता में चार आपेक्षिकताएं नैतिक मूल्यों के निर्धारण में भाग लेती हैं। आचरण के तथ्य इन्हीं चार बातों के आधार पर नैतिक और अनैतिक बनते रहते हैं। दूसरे शब्दों में आचरण के तथ्य अपने आप में नैतिक अथवा अनैतिक नहीं होते वरन् वस्तुस्थिति, स्थान, समय और कर्ता के मनोभाव यह चारों मिलकर उसे नैतिक अथवा अनैतिक बना देते हैं। संक्षेप में एकान्त रूप से न तो कोई आचरण, कर्म या क्रिया नैतिक है और न अनैतिक वरन् देशकालगत बाह्य परिस्थितियां और द्रव्य तथा भावगत आन्तरिक परिस्थितियां उन्हें वैसा बना देती हैं। इस प्रकार जैन नैतिकता व्यक्ति के कर्तव्यों के सम्बन्ध में अनेकांतवादी या सापेक्षिक दृष्टिकोण अपनाती है। वह यह भी स्वीकार करती है कि जो दानादि एक गृहस्थ के नैतिक कर्तव्य हैं वे ही एक मुनि या संन्यासी के लिए अकर्तव्य होते हैं। कर्तव्याकर्तव्य मीमांसा में जैन विचारणा किसी भी एकांतिक दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करती। समदर्शी आचार्य हरिभद्र लिखते हैं कि भगवान तीर्थंकर देवों ने न किसी बात के लिए एकान्त विधान किया है और न किसी बात के लिए एकान्त निषेध ही किया है। भगवान तीर्थंकर देव का एक ही आदेश है, एक ही आज्ञा है कि जो कुछ भी कार्य तुम कर रहे हो उसे सत्यभूत होकर करो, उसे पूरी वफादारी के साथ करते रहो । आचार्य उमास्वाति का कथन है नैतिक-अनैतिक, विधि (कर्तव्य) निषेध
1 Every act has of course, many sides, many relations, many points of view
from which it may be regarded, and so many qualities there is not the smallest difficulty in exhibiting it as the realization of either right or wrong. No act in the world is without some side capable of being subsumed under a good rule.
-Ethical Studies (1962) P. 196. २ आचारांग सूत्र हिन्दी टीका, प्रथम भाग, पृष्ठ ३७८ संस्करण १६६३ ३ उत्पद्यते हि सावस्था देशकालामयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्म कार्य च वर्जयेत ॥
-अष्टक प्रकरण २७.५ टीका
(उद्धृत अमर भारती, फरवरी १९६५) ४ न वि किंचि अणुण्णातं पडिसिद्धवावि जिणवरिदेहि । तित्थगराणं आणा कज्जे सच्चेण होयव्वं ॥
-उपदेशपद ७७६
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