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जैनदर्शन में भावना विषयक चिन्तन
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भावना का महत्व भाव एक नौका है जिस पर चढ़ कर संसार-सागर से पार उतरा जा सकता है। यह धर्म रूप द्वार खोलने की कुंजी है। भाव एक औषधि है जिससे भवरोग की चिकित्सा की जाती है। भाव से रहित आत्मा कितना ही प्रयत्न करे, मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकती । शास्त्रों में मोक्ष के चार मार्ग बताये गये हैं-दान, शोल, तप और भाव । इनमें अन्तिम मार्ग भाव है। भाव के अभाव में दान, शील, तप आदि केवल अल्प फलदायक होंगे। दान के साथ दान देने की शुद्ध भावना होगी, शील पालने की सच्ची भावना होगी और तप करने के सुन्दर भाव होंगे तभी वे मुक्ति के हेतु बनेंगे । अतः यह बात शत-प्रतिशत सही है कि भावशून्य आचरण सिद्धिदायक नहीं होता । तभी कहा जाता है-'जो मन चंगा तो कठौती में गंगा।'
सचमुच भगवान् का निवास शुद्ध भावों में ही है। जो लोग भावना की शुद्धि को महत्त्व न देकर परमात्मा को मन्दिर, मसजिद, गिरजाघर में ढूंढ़ने का प्रयत्न करते हैं, उनसे कबीर कहते हैं
मुझको कहाँ ढूंढ़े बन्दे, मैं तो तेरे पास में । ना मैं मक्का, ना मैं काशी, ना काबे कैलास में ।
मैं तो हूँ विश्वास में। और परमात्मा को पाने के लिए वे 'कर का मनका' छोड़कर 'मन का मनका' फेरने की बात कहते हैं । मात्र माला के मणियों को फेरने से प्रभु नहीं मिलेंगे, उनसे मिलने के लिए तो मन को शुद्ध करना होगा।
'पदमपुराण' में भी एक प्रसंग आता है। एक बार नारदजी भगवान विष्ण से पूछते हैं कि भगवन् ! आपका निवास स्थान कहाँ है ? विष्णु ने उत्तर दिया
नाहं वसामि वैकुण्ठे, योगिनां हृदयेन च ।
मद् भक्ता यत्र गायन्ति, तत्र तिष्ठामि नारद ॥ अर्थात् न मैं बैकुण्ठ में रहता हूँ, न शेषशय्या पर और न योगियों के हृदय में, किन्तु मेरे भक्त जहाँ भावना के साथ मुझे पुकारते है, मैं वहीं उपस्थित रहता हूँ ।
भावना के प्रकार यों तो भावना के अलग-अलग दृष्टियों से अनेक प्रकार किये गये हैं, पर मूलतः भावना के दो भेद हैं-अशुभ भावना और शुभ भावना। शास्त्रीय भाषा में इसे क्रमशः संक्लिष्ट और असंक्लिष्ट भावना भी कहा जाता है।
अशुभ भावना मन जब राग-द्वेष, मोह आदि के अशुभ विकल्पों में उलझ कर निम्न गति करता है, दुष्ट चिन्तन करता है तब वह चिन्तन अशुभ भावना कहलाता है। यह अशुभ भावना जीव की दुर्गति का कारण बनती है, उसे पतन की ओर ले जाती है। अशुभ भावना बड़े-बड़े तपस्वी मुनियों को भी नरक गति अथवा दुर्गति में ठेल देती है।
अशभ भावना के कई भेद किये जा सकते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के ३६ वें अध्ययन में चार अशुभ भावनाओं का उल्लेख किया गया है । वे हैं-(१) कन्दर्प भावना (२) आभियोगी भावना (३) किल्विषी भावना और (४) आसुरी भावना ।
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